गुरुवार, 29 जुलाई 2010

वो सुबह कभी तो आयेगी









पेशे नज़र नज़्म जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहब के अकीदों को और दुनिया के तमाम मज़लूमो की उम्मीदों को लिबासे हकीक़त पहनाते है के जिसमे फैज़ अहमद फैज़ साहब उस सुबह का ज़िक्र करते हें जिसमे दुनिया अदलो इंसाफ से भर जाएगी इमामे अस्रअलैहिस्सलाम की विलादत के अय्याम मैं इस नज़्म के ज़रिये हम नजराने अकीदत पेश करते हैं और दुनिया की हर फर्द को बता देना चाहते हैं के.......................


वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन मे हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरामाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिटटी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा , इज्ज़त को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

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