बुधवार, 30 दिसंबर 2009

इताअत



इताअत
تلك حدود الله فلا تعتدوها و من يتعد حدود الله فاولئك هم الظالمون

यह अल्लाह की हुदूद हैं इनसे आगे न बढ़ो जो आल्लाह की हुदूद से आगे बढ़े वह सब ज़ालेमीन में से हैं।
सूरः ए बक़रः आयत न. 230
अगर हम यह मानलें कि यह पूरी ज़मीन एक इंसान के हाथ में है तो इसमें कोई शक नही है कि वह इंसान ज़िन्दगी के हर पहलु में बहुत ज़्यादा आज़ाद होगा। जहाँ उसका दिल चाहेगा मकान बनायेगा, जिस हिस्से में चाहेगा खेती करेगा, जिस जगह बाग़ लगाना चाहेगा लगा लेगा क्योंकि वह ज़मीन पर रहने वाला तन्हा इंसान होगा। लेकिन इसके बावजूद भी वह खाने पीने, काम करने वग़ैरा में महदूद ही रहेगा। इस बिन पर अगर इंसान इस ज़मीन पर तन्हा रहेगा तब भी उसे मजबूरन कुछ हुदूद की रिआयत करनी होगी। क्योंकि वह उस हालत में किसी ख़ास जगह पर आराम करने और कुछ खास चीज़े खाने पर मजबूर होगा। इस मुक़द्दमे से यह बात ज़ाहिर होती है कि समाजी ज़िन्दगी में सबसे पहली ज़रूरत एक क़ानूनी ज़िन्दगी की है। दूसरे लफ़्ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि जब इंसान की फ़रदी ज़िन्दगी इजतेमाई ज़िन्दगी में तबदील हो जाती है तो इंसानों के इख़्तियार महदूद हो जाते हैं क्योंकि समाज में एक निज़ाम व क़ानून का दौर दौरा हो जाता है।
इस अस्ले अव्वल के लिहाज़ से इजतेमाई ज़िन्दगी से जो चीज़ वुजूद में आती है, वह क़ानूनी ज़िन्दगी व हद व हुदूद की रिआयत है, चाहे यह इजतेमा दो इंसानों पर ही मुशतमिल हो। मिसाल के तौर पर अगर पूरी ज़मीन पर फ़क़त दो इंसान रहे तो उनकी ज़िम्मेदारी है कि वह क़ानून के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करें, यानी उनमें से हर एक की ज़िम्मेदारी है कि अपनी हद व हुदूद की रिआयत करें और अपनी हद से आगे न बढ़ें।
लिहाज़ा इजतेमाई ज़िन्दगी का बुनियादी मसला क़ानून की ज़रूरत और उनकी रिआयत है।
ख़ुदा वन्दे आलम ने इस बारे में फ़रमाया है कि जो हुदूद से आगे बढ़े उसने खुद अपने ऊपर ज़ुल्म किया है। जाहिर है कि एक बेक़ानूनी समाज़ को मफ़लूज बना देती है और जब समाज मफ़लूज हो जायेगा तो उसका नुक़्सान समाज के हर फ़र्द होगा। लिहाज़ा जो लोग क़ानून तोड़ते हैं, वह हक़ीक़त में अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं। इस लिए आराम व सुकून पाने के लिए समाज के हर फ़र्द को क़ानून का एहतेराम करते हुए उसकी पैरवी करनी चाहिए।
अफ़सोस है कि बाज़ समाज में समाजी ज़िन्दगी तो पाई जाती हैं लेकिन उनके अफ़राद को क़ानून की रिआयत की मालूमात नही है। इससे मालूम होता है कि उनका समाज तरकीब के लिहाज़ से तो इजतेमाई हो गया है लेकिन उसके अफ़राद में अभी तक इजतेमाई ज़िन्दगी की क़ाबिलियत पैदा नही हुई है। दूसरे लफ़ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि ऐसा समाज उस इंसान की तरह है जिसने जिस्मानी एतेबार से तो रुश्द कर लिया हो लेकिन अक़्ली व फ़िक्री एतेबार से रुश्द के मरहले तक न पहुँचा हो।
इस तरह के समाज़ में क़ानून तोड़ने की आदत पाई जाती है। ज़ाहिर है कि इंसानों के ज़ाती फ़ायदे इस बात का सबब बनते हैं कि ज़वाबित को नज़र अंदाज़ करके रवाबित को नज़र में रखा जाता है। इसे उसे देख कर क़ानून की रिआयत किये बिना अपना काम करने की कोशिश की जाती है। इस तरह के अफ़राद अपने फ़ायदे के लिए समाजी निज़ाम व ज़वाबित को पामाल करके रवाबित से काम निकालते है।
आज एक ऐसी मुश्किल को हल करने की सआदत हासिल की है जो न ताग़ूत के ज़माने में हल हुई थी और न अब तक जमहूरी इस्लामी के दौर में और वह है ट्रैफिक की मुश्किल। आज तेहरान शहर में कुछ गिने चुने हज़रात के अलावा बाक़ी लोग ड्राइविंग के क़ानूनों की रिआयत नही करते। बल्कि हालत यह है कि ड्राइवर हर तरह की ख़िलाफ़ वरज़ी करते हुए आपना रास्ता साफ़ करके आगे बढ़ने की कोशिश करता है। जबकि ट्रैफ़िक पुलिस के अफ़सर क़ानूनों की ख़िलाफ़ वरज़ी करने वाले ड्राइवरों पर जुर्माना जहाँ तहाँ नक़द जुर्माना करते रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी ड्राइवर ख़िलाफ़ वरज़ी करते रहते हैं। याद रखना चाहिए कि जुर्माने या जेल की सज़ा के ज़रिये किसी को क़ानून का ताबे नही बनाया जा सकता, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि उसकी समाजी फ़िक्र को इतना वसी बना देना चाहिए कि उसके अन्दर क़ानून की पैरवी करने का जज़बा पैदा हो जाये। कोई ऐसा काम करना चाहिए कि ड्राइवर मुकम्मल तौर पर क़ानूनों की रिआयत करने पर ईमान ले आयें ताकि बाद में पुलिस के मौजूद रहने और जुर्माना करने की ज़रूरत न रहे। ड्राइवर अपने दिल के उस ईमान की वजह से ख़िलाफ़ वरज़ी की तरफ़ मायल न हों।
समाजी ज़िन्दगी यानी शख़्सी उम्मीदों की नफ़ी
हमारे समाज में कुछ अफ़राद को छोड़ कर सभी में तवक़्क़ो पाई जाती है। लोग, ख़ुद को समाज के दूसरे लोगों से बड़ा मानते हुए यह चाहते हैं कि सब काम ताल्लुक़ात की बिना पर हल हो जायें। इस तरह के लोग अपने आपको सबसे अलग समझते हैं और किसी भी समाजी पहलु में क़ानून की रिआयत नही करते और क़ानून तोड़कर अपनी चाहत को पूरा करते हैं। लोगों का यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि क़ानून कमज़ोर लोगों के लिए है, उन्हें हुकूमत के तमाम ख़र्चों को पूरा करना चाहिए और बदले में क़ानून की रिआयत भी। हक़ीक़त यह है कि क़ानून तोड़ने वाले अफ़राद ख़ुद को समाज के आम लोगों से बड़ा समझते हैं और अपने लिए एक ख़ास वज़अ के क़ायल होते हैं। उनका यह रवैया राजा, प्रजा और ग़ुलाम व मालिक के निज़ाम से पनपा है। आज इस्लाम तमाम लोगों को क़ानून के सामने बराबर समझता है और किसी को भी यह हक़ नही देता कि वह ख़ुद को किसी तरह भी दूसरों से बड़ा समझे। इस्लाम ने तबईज़ के तमाम अवामिल को इंसानों के दरमियान से ख़त्म करके तमाम मख़लूक़ को बराबर कर दिया है।

नज़्म व जब्त the deciplin

नज़्म व ज़ब्त

اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم

हज़रत अली (अ.) नो फ़रमायाः मैं तुम्हे तक़वे और नज़्म की वसीयत करता हूँ।
हम जिस जहान में ज़िन्दगी बसर करते हैं यह नज़्म और क़ानून पर मोक़ूफ़ है। इसमें हर तरफ़ नज़्म व निज़ाम की हुकूमत क़ायम है। सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब और मौसमे बहार व ख़िज़ा की तबदीली में दक़ीक़ नज़्म व निज़ाम पाया जाता है। कलियों के चटकने और फूलों के खिलने में भी बेनज़मी नही दिखाई देती। कुर्रा ए ज़मीन, क़ुर्से ख़ुरशीद और दिगर तमाम सय्यारों की गर्दिश भी इल्लत व मालूल और दक़ीक़ हिसाब पर मबनी है। इस बात में कोई शक नही है कि अगर ज़िन्दगी के इस वसीअ निज़ाम के किसी भी हिस्से में कोई छोटी सी भी ख़िलाफ़ वर्ज़ी हो जाये तो तमाम क़ुर्रात का निज़ाम दरहम बरहम हो जायेगा और कुर्रात पर ज़िन्दगी ख़त्म हो जायेगी। पस ज़िन्दगी एक निज़ाम पर मोक़ूफ़ है। इन सब बातों को छोड़ते हुए हम अपने वुजूद पर ध्यान देते हैं, अगर ख़ुद हमारा वुजूद कज रवी का शिकार हो जाये तो हमारी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। हर वह मौजूद जो मौत को गले लगाता है मौत से पहले उसके वुजूद में एक ख़लल पैदा होता है जिसकी बिना पर वह मौत का लुक़मा बनता है। इस अस्ल की बुनियाद पर इंसान, जो कि ख़ुद एक ऐसा मौजूद है जिसके वुजूद में नज़्म पाया जाता है और एक ऐसे वसीअ निज़ामे हयात में ज़िन्दगी बसर करता है जो नज़्म से सरशार है, इजतेमाई ज़िन्दगी में नज़्म व ज़ब्त से फ़रार नही कर सकता।
आज की इजतेमाई ज़िन्दगी और माज़ी की इजतेमाई ज़िन्दगी में फ़र्क़ पाया जाता है। कल की इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत सादा थी मगर आज टैक्निक, कम्पयूटर, हवाई जहाज़ और ट्रेन के दौर में ज़िन्दगी बहुत दक़ीक़ व मुनज़बित हो गई है। आज इंंसान को ज़रा सी देर की वजह से बहुत बड़ा नुक़्सान हो जाता है। मिसाल को तौर पर अगर कोई स्टूडैन्ट खुद को मुनज़्ज़म न करे तो मुमकिन है कि किसी कम्पटीशन में तीन मिनट देर से पहुँचे, ज़ाहिर है कि यह बेनज़मी उसकी तक़दीर को बदल कर रख देगी। इस मशीनी दौर में ज़िन्दगी की ज़रूरतें हर इंसान को नज़्म की पाबन्दी की तरफ़ मायल कर रही हैं। इन सबको छोड़ते हुए जब इंसान किसी मुनज़्ज़म इजतेमा में क़रार पाता है तो बदूने तरदीद उसका नज़्म व निज़ाम उसे मुतास्सिर करता है और उसे इनज़ेबात की तरफ़ खींच लेता है।
एक ऐसा ज़रीफ़ नुक्ता जिस पर तवज्जो देने में ग़फ़लत नही बरतनी चाहिए यह है कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ रूह से होता है और इंसान इस रूही आदत के तहत हमेशा खुद को बाहरी इमकान के मुताबिक़ ढालता रहता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी मुनज़्ज़म आदमी के पास कोई सवारी न हो और उसके काम करने की जगह उसके घर से दूर हो तो उसका नज़्म उसे मजबूर करेगा कि वह अपने सोने व जागने के अमल को इस तरह नज़्म दे कि वक़्त पर अपने काम पर पहुँच सके।
इस बिना पर जिन लोगों में नज़्म व इनज़ेबात का जज़्बा नही पाया जाता अगर उनका घर काम करने की जगह से नज़दीक हो और उनके पास सवारी भी मौजूद वह तब भी काम पर देर से ही पहुँचेगा।
इस हस्सास नुक्ते पर तवज्जो देने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ इंसान की रूह से है और इसे आहिस्ता आहिस्ता तरबियत के इलल व अवामिल के ज़रिये इंसान के वुजूद में उतरना चाहिए।
इसमें कोई शक नही है कि इंसान में इस जज्बे को पैदा करने के लिए सबसे पहली दर्सगाह घर का माहौल है। कुछ घरों में एक खास नज़्म व ज़ब्त पाया जाता है, उनमें सोने जागने, खाने पीने और दूसरे तमाम कामों का वक़्त मुऐयन है। जाहिर है कि घर का यह नज़्म व ज़ब्त ही बच्चे को नज़्म व निज़ाम सिखाता है। इस बिना पर माँ बाप नज़्म व निज़ाम के उसूल की रिआयत करके ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर अपने बच्चों को नज़्म व इनज़ेबात का आदी बना सकते हैं।
सबसे हस्सास नुक्ता यह है कि बच्चों को दूसरों की मदद की ज़रूरत होती है। यानी माँ बाप उन्हें नींद से बेदार करें और दूसरे कामों में उनकी मदद करें। लेकिन यह बात बग़ैर कहे ज़ाहिर है कि उनकी मदद करने का यह अमल उनकी उम्र बढ़ने के साथ साथ ख़त्म हो जाना चाहिए। क्योंकि अगर उनकी मदद का यह सिलसिला चलता रहा तो वह बड़े होने पर भी दूसरों की मदद के मोहताज रहेंगे। इस लिए कुछ कामों में बच्चों की मदद करनी चाहिए और कुछ में नही, ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें और हर काम में दूसरों की तरफ़ न देखें।
माँ बाप को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि बच्चों का बहुत ज़्यादा लाड प्यार भी उन्हे बिगाड़ने और खराब करने का एक आमिल बन सकता है। इससे आहिस्ता आहिस्ता बच्चों में अपने काम को दूसरों के सुपुर्द करने का जज़्बा पैदा हो जायेगा फिर वह हमेशा दूसरों के मोहताज रहेंगे। ज़िमनन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि नज़्म व निज़ाम एक वाक़ियत हैं लेकिन इसका दायरा बहुत वसीअ है। एक मुनज़्ज़म इंसान इस निज़ाम को अपने पूरे वुजूद में उतार कर अपनी रूह, फ़िक्र, आरज़ू और आइडियल सबको निज़ाम दे सकता है। इस बिना पर एक मुनज़्ज़म इंसान इस हस्ती की तरह अपने पूरे वुजूद को निज़ाम में ढाल सकता है।
निज़ाम की कितनी ज़्यादा अहमियत है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्र के सबसे ज़्यादा बोहरानी हिस्से यानी शहादत के वक़्त नज़्म की रिआयत का हुक्म देते हुए फ़रमाया है।
اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم
तुम्हें तक़वे व नज़्म की दावत देता हूँ।
अरबी अदब के क़वाद की नज़र से कलमा ए अम्र की ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़त इस बात की हिकायत है कि नज़्म तमाम कामों में मनज़ूरे नज़र है, न सिर्फ़ आमद व रफ़्त में। क्योंकि उलमा का यह मानना है कि जब कोई मस्दर ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़ा होता है तो उमूम का फ़ायदा देता है। इस सूरत में मतलब यह होगा कि तमाम कामों में नज़्म की रिआयत करो। यानी सोने,जागने, इबादत करने, काम करने और ग़ौर व फ़िक्र करने वग़ैरा तमाम कामों में नज़्म होना चाहिए।
इस्लाम में नज़्म व निज़ाम की अहमियत
इस्लाम नज़्म व इन्ज़ेबात का दीन है। क्योंकि इस्लाम की बुनियाद इंसान की फ़ितरत पर है और इंसान का वुजूद नज़्म व इन्ज़ेबात से ममलू है इस लिए ज़रूरी है कि इंसान के लिए जो दीन व आईन लाया जाये उसमे नज़्म व इन्ज़ेबात पाया जाता हो। मिसाल के तौर पर मुसलमान की एक ज़िम्मेदारी वक़्त की पहचान है। यानी किस वक़्त नमाज़ शुरू करनी चाहिए ? किस वक़्त खाने को तर्क करना चाहिए ? किस वक़्त इफ़्तार करना चाहिए ? कहाँ नमाज़ पढ़नी चाहिए और कहाँ नमाज़ नही पढ़नी चाहिए? कहाँ नमाज़ चार रकत पढ़नी चाहिए कहाँ दो रकत ? इसी तरह नमाज़ पढ़ते वक़्त कौनसे कपड़े पहनने चाहिए और कौन से नही पहनने चाहिए ? यह सब चीज़ें इंसान को नज़्म व इन्ज़ेबात से आशना कराती हैं।
इस्लाम में इस बात की ताकीद की गई है और रग़बत दिलाई गई है कि मुसलमानों को चाहिए कि अपनी इबादतों को नमाज़ के अव्वले वक़्त में अंजाम दें।
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को अव्वले वक़्त नमाज़ पढ़ने की वसीयत की।
انه قال يا بنى اوصك با لصلوة عند وقتها

ऐ मेरे बेटे नमाज़ को नमाज़ के अव्वले वक़्त में पढ़ना।
ज़ाहिर है कि फ़राइज़े दीने (नमाज़े पनजगाना) को अंजाम देने का एहतेमाम इंसान में तदरीजी तौर पर इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करेगा।
ऊपर बयान किये गये मतालिब से यह बात सामने आती है कि पहली मंज़िल में जज़्बा ए नज़्म व इन्ज़ेबात माँ बाप की तरफ़ से बच्चों में मुन्तक़िल होना चाहिए। ज़ाहिर है कि स्कूल का माहौल भी बच्चों में नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने में बहुत मोस्सिर है। स्कूल का प्रंसिपिल और मास्टर अपने अख़लाक़ व किरदार के ज़रिये शागिर्दों में नज़्म व इन्ज़ेबात को अमली तौर पर मुन्तक़िल कर सकते हैं। इसको भी छोड़िये, स्कूल का माहौल अज़ नज़रे टाइम टेबिल ख़ुद नज़्म व ज़ब्त का एक दर्स है। शागिर्द को किस वक़्त स्कूल में आना चाहिए और किस वक़्त सकूल से जाना चाहिए ? स्कूल में रहते हुए किस वक़्त कौनसा दर्स पढ़ना चाहिए ? किस वक़्त खेलना चाहिए ? किस वक़्त इम्तेहान देना चाहिए ? किस वक़्त रजिस्ट्रेशन कराना चाहिए ? यह सब इन्ज़ेबात सिखाने के दर्स हैं।
ज़ाहिर है कि बच्चों और शागिर्दों नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने के बारे में माँ बाप और उस्तादों की सुस्ती व लापरवाही जहाँ एक ना बख़शा जाने वाला गुनाह हैं वहीँ बच्चों व जवानों की तालीम व तरबियत के मैदान में एक बड़ी ख़ियानत भी है। क्योंकि जो इंसान नज़्म व इन्ज़ेबात के बारे में नही जानता वह ख़ुद को इजतेमाई ज़िन्दगी के मुताबिक़ नही ढाल सकता। इस वजह से वह शर्मिन्दगी के साथ साथ मजबूरन बहुत से माद्दी व मानवी नुक़्सान भी उठायेगा।