मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

किशोरों में आत्म विश्वास उत्पन्न करना




किशोरावस्था की समस्याओं और किशोरों में आत्म विश्वास उत्पन्न करना


हम सब जानते हैं कि एक किशोर की भावनाओं, अनुभूतियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं यहॉ तक कि उसके शरीर में जो परिवर्तन उत्पन्न होते हैं उनकी पहचान प्राप्त करना किशोर के साथ उसके आस - पास के लोगों विशेषकर बड़ों और माता - पिता के बीच एक तार्किक संबंध उत्पन्न करने की कुन्जी है। यहॉ पर हम कुछ ऐसे बिन्दुओं की ओर संकेत करेंगे जिनपर ध्यान देकर किशोर तथा माता - पिता एक दूसरे के साथ अधिक निकटता का आभास करें।










मनुष्य अपनी पूरी आयु में प्रशिक्षण प्राप्त करता रहता है, दूसरे शष्दों में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुज़रता रहता है जो उसके आस - पास के लोग एवं वातावरण उसे सिखाता है। अलबत्ता जीवन के आरम्भिक दिनों से लेकर युवावस्था तक प्रशिक्षण का विशेष महत्व होता है। इसलिए अच्छा है कि इसी आयु में हम अपने बच्चों को यह सिखाएं कि मनुष्य को अपने जीवन में कुछ चीज़ों पर विश्वास होना चाहिए और उनके प्रति उसे कटिबद्ध रहना चाहिए।


शिष्टाचारिक नियमों, सामाजिक रीति - रिवाजों और मनुष्य के विश्वासों को धर्म कहा जाता है। धर्म कारण बनता है कि मनुष्य भ्रष्टचार से बचे और जीवन में उसे कल्याण प्राप्त हो। यदि इसके विपरित हो तो मनुष्य एक ऐसे जीव में परिवर्तित हो जाए गा जिसे बुराइयों से कोई रोक नहीं सकता।


नि: सन्देह युवाओं में सही शिष्टाचारिक नियमों विशेषकर धार्मिक नियमों के प्रति कटिबद्धता की भावना उत्पन्न करके उसे बहुत सारी कठिनाइयों तथा युवावस्था की समस्याओं से बचाया जा सकता है। इससे माता - पिता के साथ उनकी सन्तान के संबंधों को बेहतर बनाने में भी सहायता मिलती है।


माता - पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के लिए पवित्रता तथा नैतिकता का उदाहरण बने ताकि बच्चे उनसे इसे सीख सकें।










घर को एक शान्त एवं सुरक्षित स्थान में परिवर्तित करें ताकि युवा अपनी समस्याओं के समाधान के लिए घर ही की शरण में आएं।यदि हम युवा के साथ एक स्वस्थ और तार्किक संबंध स्थापित कर सकें तो हम उसके वैचारिक संसार में क़दम रख सकते हैं और यह उसके सफल प्रशिक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण क़दम है।


मनोविज्ञान ने यह प्रभाणित कर दिया है कि जिस प्रकार बच्चे को माता के प्रेम व स्नेह की आव्श्यकता है उसी प्रकार उसे पिता के प्रेम की भी आवश्यकता होती है।










दूसरों के सम्मुख युवाओं का अपमान कदापि नहीं करना चाहिए। आप युवा को यह समझाएं कि उसके कोर्यों की ज़िम्मेदारी केवल उसी पर है और आप आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता कर सकते हैं।


युवाओं के अपने कुछ विशेष विचार होते हैं, उनके कोमल एवं सवेंदनशील संसार को कदापि तुच्छ न समझें हमें प्रयास करना चाहिए कि युवा की रुचि के अनुकूल उसके लिए उचित साधन जुटाएं ताकि उसे वैचारिक पथभ्रष्टता से बचा सकें। मित्र तथा युवा की आयु के उसके साथी, उसके व्यक्तित्व निर्भाण में बहुत प्रभावी भूमिका निमाते हैं। इसलिए हमें सर्तक रहना चाहिए कि उसके घनिष्ट मित्र कौन हैं, उनकी क्या विशेषताएं हैं और उनके परिवार पर किस विशेष संस्कृति का प्रभाव है। क्योंकि युवा अपने मित्रों का अनुसरण बड़ी जल्दी करने लगता है और यदि उसके मित्र विश्वसनीय और उचित न हों तो क्या हो सकता है यह आप स्वंम सोचें।










हमें अपनी युवा सन्तानों का मित्र और साथी होना चाहिए। बजाए इसके कि उसके मुक़ाबले में खड़े हो जाएं या उसपर नियन्त्रण रखने के लिए निरन्तर उसका पीछा करते रहें या अकारण ही उसकी आलोचना करें जिससे केवल युवा की प्रतिक्रियाएं ही सामने आएं गी, हमें चाहिए कि उसके मित्र बनकर रहें।


युवा को ऐसे किसी की खोज होती है जो उसकी बातों को ध्यान से सुने और उसके विशेष संसार को पहचाने।


आइए हम युवा का विश्वास प्राप्त करने का प्रयास करें।


जब कभी विचार विमर्श की बात होती है तो पहली चीज़ जो समझ में आती है वो यह है कि किसी को कोई परेशानी है और वो किसी ऐसे से विचार विमर्श करना चाहता है जो उससे अधिक जानकार हो ताकि उसकी समस्या का समाधान हो सके। मनुष्य की समस्याएं संभव है विभिन्न क्षेत्रों में हों। एक प्रश्न यहॉ पर यह उठता है कि क्या एक सन्तान सलाहकार के पास जा सकती है? या यह कि क्या एक सन्तान हमारी समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है? हम माता - पिता को कभी कभी ऐसी कठिनाइयों का सामना होता है जिसे अपनी सन्तान के साथ सलाह - मशवरा करके हल किया जा सकता है और इस विचार विमर्श से समस्या के समाधान के अतिरिक्त कई और लाभ हैं।










माता - पिता, प्रशिक्षक या वो सभी, जिन्हें कसी न किसी रूप से बच्चों तथा युवाओं से काम रहता है, कभी न कभी ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं जहॉ उन्हें निर्णय लेना पड़ता है। स्वाभाविक है कि बड़ें यदि छोटों की सलाह के महत्व व भूमिका से अनभिज्ञ हों तो बड़ी सरलता से वो उनके लिए निर्णय ले सकते हैं।


परन्तु क्या सदैव यह निर्णय बेहतरीन और सबसे उचित निर्णय हैं? यदि ऐसा हो भी तो इससे बच्चे या युवा के आत्म विश्वास तथा व्यक्तित्व विकास को ठेस नहीं पहुंचेगी? अर्थात सन्तान क्या उस स्थान पर नहीं पहुंचे गी जहॉ उसे ऐसा लगने लगे कि जीवन में उसकी कोई भूमिका नहीं है और उसके लिए दूसरे निर्णय लेते हैं।










इसलिए हम माता - पिता और सभी बड़ों से यह आग्रह करते हैं कि अपने बच्चों से सलाह - मशरा करने को गंभीरता से लें और इसे उसके व्यक्तित्व के विकास का महत्वपूर्ण कारक समझें। विचार विमर्श या सलाह, बच्चे की आयु और उसके अनुभवों तथा सूचनाओं की मात्रा के अनुकूल होना चाहिए।


अर्थात जिन विषयों या मामलों का उससे संबंध नहीं है, या अपने विचार व्यक्त करने के लिए उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं है। उन्हें उसके सामने नहीं रखना चाहिए।










ऐसे नियम जिनपर आप को विश्वास हो और जिनके बारे में आपके विचार परिवर्तित नहीं हो सकते उनपर भी किसी की राय मत लीजिए। अपने बच्चे के दृष्टिकोंण स्वीकार करने के लिए स्वंम को तैयार कीजिए। उसके सम्मुख दो मार्ग रखिए, वो जिसे चाहे कर ले। उदाहरण स्वरूप यह मत पूछिए कि तुम्हारे विचार में इन छुट्टियों में क्या किया जाए? बल्कि ऐसे दो कार्य जो कुद्धियों में किए जा सकते हैं , उसके सामने रखें और उससे कहिए कि किसी एक का चयन कर ले।


सलाह - मशवरे में अपने बच्चे की सहायता कीजिए ताकि वो यह सीखे कि एक ही विषय के विभिन्न आयोमों पर पहले विचार फिर निर्णय लिया जाता है। उसे यह भी समझाइए कि कोई राय पेश करने का अर्थ यह नहीं है कि यही आन्तिम निर्णय है।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

सम्मोहन एवं बुद्धिमत्ता

पुराने समय की बात है। एक माली रहता था जो सुगंधित व सुदंर फ़ुलवाड़ियों व क्यारियों की बहुत अच्छे ढंग से देखभाल करता था। वृद्ध होने के बावजूद वह प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व बाग़ में टहलता और ताज़ा हवा का आनंद लेता। वह फूल पौधों को देखता और उन्हें सूंघा करता था। इसलिए सदैव प्रफुल्लित रहता था। यही कारण था कि मित्र उसे प्रफुल्लित वृद्ध कहते थे। उसका भी अन्य लोगों की भांति यह विश्वास था कि जो व्यक्ति भोर के समय उठे और कुछ देर फूलों के पास रहे और घास पर चले तो कभी भी बूढ़ा नहीं होगा और सदैव प्रफुल्लित रहेगा। माली ने अपने उपवन में नाना प्रकार के फूल लगा रखे थे और उनमें सबसे अधिक उसे लाल रंग का गुलाब पसंद था जो दिखने में भी सुंदर और सबसे अधिक सुगंधित होता है। वह हर दिन फूल और पौधों को देखता और एक एक फूल को सूंघता और स्वयं से कहताः बुलबुल यदि लाल गुलाब पर सम्मोहित होते हैं तो स्वाभाविक बात है। लाल गुलाब जीवन को आनंद देता है और इससे मन व आत्मा को शांति मिलती है।






एक दिन माली सदैव की भांति सुर्योदय से पूर्व बाग़ में टहलते हुए अपनी पसंद वाले लाल गुलाब तक पहुंचा। उसने देखा कि गुलाब की टहनी पर बैठा एक बुलबुल गुलाब की पंखुड़ियों को एक-एक कर नोच रहा है। बुलबुल अपने सिर को पंखुड़ियों में छिपाकर चहक रहा था। वह इस प्रकार देख रहा था मानो फूल के पास रह कर प्रफुल्लता का आभास कर रहा हो। बुलबुल चहक रहा था और पंखुड़ियों को एक एक कर नोच रहा था यहां तक कि पूरे फूल से उसने पंखुड़ियां नोच डालीं। वृद्ध माली थोड़ी देर खड़ा यह दृष्य देखता रहा। फूलों के निकट बुलबुल को प्रसन्नचित पाकर स्वंय भी प्रफुल्लित था। किन्तु फूल के पास बिखरी पंखुड़ियों के कारण दुखी था। थोड़ी देर के पश्चात बुलबुल ने जब यह समझ लिया कि माली उसे देख रहा था, फुर से उड़ गया।






दूसरे दिन माली ने फिर यही दृष्य देखा। उसने देखा कि बुलबुल पंखुड़ियों को नोच रहा है, चहक रहा है और जैसे ही उसे देखा, देखते ही उड़ गया। माली अपने मनपसंद फूलों की यह दुर्गत देख कर दुखी हुआ और स्वयं से कहने लगा कि बुलबुल को लाल गुलाब पर मोहित होने का अधिकार है किन्तु फूल, देखने और सूंघने के लिए होता है न कि नोचने के लिए। यह न्याय नहीं है। मैंने इन फूलों के लिए बहुत प्रयास किए हैं। बुलबुल इसे क्यों नष्ट कर रहा है?






तीसरे दिन जब माली ने यह देखा कि बुलबुल चहक-चहक कर ज़मीन पर गिरी हुई पंखुड़ियों से बात कर रहा है तो वह क्रोधित हो उठा और कहाः जो बुलबुल अपनी स्वतंत्रता का दुरुपयोग करे उसका दण्ड पिंजरा है। उसने लाल गुलाब की झाड़ में जाल बिछाकर बुलबुल को पकड़ लिया और पिंजरे में बंद कर दिया और कहाः तुमने अपनी स्वतंत्रता के महत्व को नहीं समझा। अब पिंजरे में रहोगे तो पंखुड़ियों को नोचने का परिणाम समझ में आएगा। बुलबुल ने पिंजरे में बंदी बनाए जाने पर विरोध जताया और कहाः हे प्रिय मित्र हम और तुम दोनों ही लाल गुलाब पर मोहित हैं। तुम फूलों की सिंचाई करके मुझे प्रफुल्लित करते हो और इसके बदले में मेरे चहकने से आनंदित होते हो। मैं भी तुम्हारी भांति स्वतंत्र होना चाहता हूं और बाग़ का चक्कर लगाना चाहता हूं। तुमने किस तर्क के आधार पर मुझे बंदी बनाया है। यदि मेरी चहचहाहट सुनना चाहते हो तो यह जान लो कि तुम्हारा बाग़ मेरे लिए घोसले के समान है मैं उसमें दिन रात चहकूंगा। यदि और किसी कारण से मुझे बंदी बनाया है तो कृपा करके मुझे बताओ।






माली ने उत्तर दियाः जहां तक आवाज़ और चहचहाहट का संबंध है मैं इस संदर्भ में तुमसे सहमत हूं। किन्तु तुमने मेरे प्रिय फूलों को क्षति पहुंचाकर मेरा चैन छीन लिया है। स्वतंत्र अवस्था में तुम चहचहाते समय अपना नियंत्रण खो देते हो, मेरे फूलों को नोच डालते हो। यह दण्ड तुम्हारे ग़लत कार्य के कारण है ताकि दूसरे इससे पाठ लें।


बुलबुल ने कहाः हे निर्दयी व्यक्ति! तुम मुझे बंदी बना कर मेरे मन और आत्मा को आघात पहुंचा रहे हो और दण्ड की बात कर रहे हो? क्या तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारा पाप अधिक है। क्योंकि तूने मेरे मन को आहत किया है जबकि मैंने केवल एक फूल को नोचा है।


बुलबुल की बातों का माली के मन पर प्रभाव पड़ा। वह पक्षी की बातों से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे स्वतंत्र कर दिया। बुलबुल उड़ कर लाल गुलाब की टहनी पर बैठ गया और वृद्ध व्यक्ति को संबोधित करके उसने कहाः तुमने मेरे साथ उपकार किया मैं इसका पारितोषिक देना चाहता हूं। जहां तुम खड़े हो वहीं ज़मीन के नीचे सोने के सिक्कों से भरा एक बर्तन गड़ा है। उसे निकाल कर मौज उड़ाओ।






माली ने ज़मीन को खोदा तो सिक्कों से भरा बर्तन देखकर उसने बुलबुल से कहाः मुझे आश्चर्य इस बात पर है कि तूने भूमिगत बर्तन को तो देख लिया किन्तु उस जाल को न देख सके जिसे मैंने बिछाया था।


बुलबुल ने कहा इसका दो कारण हैः बुद्धिमत्ता के बावजूद इस बात की संभावना रहती है कि एक जीव अपने भाग्य के कारण किसी समस्या में घिर जाए। दूसरे यह कि मुझे स्वर्ण से प्रेम नहीं है इसलिए दृष्टि पड़ने के बावजूद इसे महत्व नहीं देता किन्तु चूंकि लाल गुलाब से मुझे प्रेम है और इस प्रेम के कारण मैं उस पर इतना मोहित हो उठा कि मेरी समस्त इंद्रियां लाल गुलाब की ओर केन्द्रित हो गईं और मैं तेरा जाल न देख पाया। जो भी चीज़ अपनी सीमा को नहीं पहचानती उसे कष्ट पहुंचता है यहां तक कि सीमा से अधिक प्रेम का भी यही परिणाम होता है। बुलबुल यह कह कर फुर से उड़ गया ताकि फूलों के सौन्दर्य से आनंदित हो।






कहावत


फ़ारसी भाषा की एक कहावत हैः


تخم مرغ دزد، شتر دزد میشہ


तुख़्मे मुर्ग़ दुज़्द, शुतुर दुज़्द मीशे


मुर्ग़ी का अण्डा चुराने वाला अंततः ऊंट की चोरी करता है,






पुराने समय की बात है कि एक लड़का था जिसे यह नहीं ज्ञात था कि चोरी किसे कहते हैं। उसे तला हुआ अंडा या अंडायुक्त भोजन बहुत पसंद था। एक दिन जब उसे तला अंडा खाने की बहुत अधिक इच्छा हुई तो उसने अपनी मां से कहाः मां अंडा तल कर दीजिए। उसकी मां ने उत्तर दियाः बाद में तल दूंगी। इस समय अंडे समाप्त हो चुके हैं। मुर्ग़ी के पुनः अंडा देने तक प्रतीक्षा करनी होगी। वह बच्चा दो दिन प्रतीक्षा नहीं करना चाह रहा था इसलिए घर से बाहर निकल गया। उसके पड़ोसी ने काबुक में कई मुर्ग़ियां और मुर्ग़े पाल रखे थे। वह बच्चा पड़ोसी के काबुक की ओर गया और उसकी जाली से हाथ डालकर उसने दो तीन अंडे चुरा लिए और घर लौट आया। संयोगवश दोपहर का समय था और मौसम गर्म था उसका पड़ोसी घर के कमरे में आराम कर रहा था इसलिए पड़ोसी के घर का कोई सदस्य उस बच्चे को अंडा चोरी करते नहीं देख पाया। बच्चा प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया। घर पहुंच कर उसने अंडे मां को दिए और उसे तलने के लिए अनुरोध किया। मां ने जब अंडे देखे तो पूछा कि ये अंडे कहां से लाए? बच्चे ने हंस कर उत्तर दिया कि पड़ोसी के काबुक से। मां ने बच्चे से यह कहने के बजाए कि यह बुरा कर्म है, यह चोरी है, अंडे ले जाकर वापस करो, कुछ क्षण सोच कर बच्चे से पूछाः किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं? बच्चे ने उत्तर दियाः नहीं।


मां ने प्रेमभाव से कहाः ठीक है अंडे तल दे रही हूं किन्तु यह याद रहे कि तुमने पड़ोसी के काबुक से अंडे उठा कर भला कर्म नहीं किया है। बच्चा यह समझ गया कि पड़ोसियों को उसके कर्म के बारे में ज्ञात नहीं होना चाहिए।


कुछ दिनों के पश्चात फिर अंडे समाप्त हो गए। इस बार यह बच्चा दबे पांव पड़ोसी के काबुक तक पहुंचा और आस पास उसने भलिभांति देख लिया कि कोई देख तो नहीं रहा है। उसने काबुक से कुछ अंडे उठाए और तेज़ी से घर भागा।


जब उसने अंडे मां के हवाले किए तो मां ने कोई विरोध नहीं जताया। केवल यह पूछा कि कहीं पड़ोसी ने तो नहीं देखा? और फिर प्रेमभाव से कहाः बेटा यह अच्छा कर्म नहीं है। कुछ मिनट में अंडा तल कर आ गया। मां और बेटे दोनों ने खाया।


धीरे धीरे बच्चा बड़ा हो रहा था। कभी कभी इधर उधर से कुछ न कुछ चोरी करता रहता। चोरी की गई वस्तुओं को या घर ले आता या फिर अपने मित्रों के बीच बांट कर मज़े उड़ाता। कुछ वर्षों के पश्चात वह छोटा बच्चा युवा हो गया और फिर एक दिन चोरी के अपराध में उसे पकड़ लिया गया। उसने इस बार एक घर से ऊंट की चोरी की थी और ऊंट के स्वामी और आस पास के लोगों ने उसे चोरी करते पकड़ लिया था। उसने सोचा भी नहीं था कि पकड़ा जाएगा। भागने का बहुत प्रयास किया किन्तु जितना भागने का प्रयास करता उतना ही पीटा जाता। अंततः उसे न्यायधीश के पास ले जाया गया।


न्यायधीश ने चोरी सिद्ध हो जाने के पश्चात क़ानून के अनुसार चोर के हाथ काटने का आदेश दिया। जब जल्लाद हाथ काटने पहुंचा तो चोर ने गुहार लगाई कि मुझे मेरी मां से मिलने दिया जाए। न्यायधीश के आदेश पर चोर की मां को बुलाया गया। चोर ने कहाः यदि दंडित करना है तो मेरी मां को दंडित किया जाए क्योंकि मां ने उस समय मुझे नहीं रोका जब मैं छोटी छोटी चोरियां किया करता था। उसने मुझे अंडे चोर से एक माहिर चोर बनाया है।


न्यायधीश चुप रहा। मां ने अपने अपराध को स्वीकार किया। न्यायधीश का मन उस बेचारे चोर के लिए पसीज गया और उसने उसे क्षमा कर दिया तथा चोर की मां को जेल में डालने का आदेश दिया। इस घटना के पश्चात जब भी यह कहना हो कि किसी व्यक्ति की छोटी ग़लतियों की उपेक्षा करने से वह बड़ी ग़लतियां में लिप्त हो सकत है तो यह कहा जाता हैः






تخم مرغ دزد، شتر دزد میشہ


तुख़्मे मुर्ग़ दुज़्द, शुतुर दुज़्द मीशे


मुर्ग़ी का अण्डा चुराने वाला अंततः ऊंट की चोरी करता है,

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

ज्ञान व अध्यात्म का सागर हज़रत मासूमा


                                                              



ज्ञान व अध्यात्म का सागर हज़रत मासूमा


सर्वसमर्थ व महान ईश्वर से निकट होने का एक मार्ग पैग़म्बरे इस्लाम           सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों से प्रेम है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम अपने पवित्र परिजनों का सदैव सम्मान करते थे और लोगों से कहते थे कि वे उनके पवित्र परिजनों से प्रेम करें। पैग़म्बरे इस्लाम ने पवित्र क़ुरआन के बाद अपने पवित्र परिजनों का परिचय इस्लामी समुदाय व राष्ट्र के लिए अपनी सबसे बड़ी धरोहर व यादगार के रूप में किया है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिजनों से प्रेम इस बात का कारण बनता है कि इन महान हस्तियों को हम जीवन के समस्त मामलों में अपना आदर्श बनायें।


पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिजनों की शहादत या जन्म दिन इस बात का अवसर है कि हम इन महान हस्तियों के ज्ञान व परिपूर्णता के अथाह सागर से अपनी प्यासी आत्माओं को तृप्त करें। आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिवार में से एक महान महिला का जन्म दिन है। १७३ हिजरी क़मरी में ज़ीक़ादा महीने की पहली तारीख को महान ईश्वर ने हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को एक पुत्री प्रदान की जिसका नाम फ़ातेमा रखा गया। यह महान महिला विभिन्न उपाधियों से प्रसिद्ध हुईं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध उपाधि मासूमा है। हज़रत मासूमा हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की बहन है और आज उनका पवित्र मज़ार ईरान के धार्मिक नगर क़ुम में स्थित है जो सदैव पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों से प्रेम करने वालों से भरा रहता है। प्रिय श्रोताओ इस महान महिला के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर हम आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और आज के कार्यक्रम में हम उनके जीवन के कुछ आयामों पर प्रकाश डाल रहे हैं।


उस दिन की विशेषता और महानता बयान नहीं की जा सकती जिस दिन क़ुम वासियों को यह सूचना मिली थी कि एक कारवां उनके नगर में प्रवेश करने वाला है और उस कारवां में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिवार की एक महान महिला हैं। यह महान महिला हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की सुपुत्री और हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की महान बहन थीं। हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने भाई हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से मिलने के लिए २०१ हिजरी क़मरी में मदीना नगर को ईरान के मर्व क्षेत्र के लिए छोड़ा। हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा रास्ते की कठिन यात्रा के बाद बहुत बीमार पड़ गयीं। इस प्रकार कि यात्रा को जारी रखना उनके लिए संभव नहीं रह गया तो विवश होकर उन्होंने अपने कारवां का रुख क़ुम नगर की ओर मोड़ दिया। क़ुम वासियों को जब हज़रत मासूमा सलामुल्ला अलैहा के आने का शुभ समाचार मिला तो वे बहुत प्रसन्न हुए। क्योंकि वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के पवित्र परिजनों से अगाध प्रेम करते थे और अपने मध्य पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार की एक महान महिला की उपस्थिति को विभूति व गर्व का कारण समझते थे। बूढ़े और जवान सब लोगों ने अपने आपको हज़रत मासूमा के स्वागत के लिए तैयार कर लिया था।


इतिहास में आया है कि क़ुम नगर के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति मूसा बिन खज़रज रात को हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के स्वागत के लिए गये और हज़रत मासूमा के ऊंट की नकेल अपने हाथों में पकड़ी और उन्हें अपने घर आने का निमंत्रण दिया और बहुत आग्रह किया। क़ुम नगर में १७ दिन रहने के बाद अधिक बीमारी के कारण हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास हो गया परंतु इसी थोड़े से समय में ही क़ुम नगर का वातावरण बदल गया और क़ुम में हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा की उपस्थिति इस नगर के इतिहास का महत्वपूर्ण एवं स्वर्णिम बिन्दु बन गई। दूर और निकट के लोग आपसे मिलने के लिए क़ुम नगर आये। आपने उस बीमारी की दशा में भी यथासंभव अपने ज्ञान से वास्तविकता प्रेमियों की प्यास बुझाई।


हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा ने ऐसे परिवार में आंखे खोली जो समस्त ज्ञानों एवं सदगुणों का प्रतीक था। आपने अपने पिता हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवनकाल में उनसे बहुत लाभ उठाया और उनकी शहादत के बाद अपने महान भाई हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान के अथाह सागर से मोती एकत्रित किए। आप अपने भाई हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से अगाध प्रेम करती थीं। आप अपना परिचय कराते हुए कहती थीं" मैं मासूमा रज़ा की बहन हूं" यह वाक्य अपने भाई हज़रत इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम से उनकी आत्मीयता का सूचक है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम भी अपनी बहन हज़रत मासूमा से बहुत प्रेम करते थे। इस प्रकार से कि अपनी बहन से दूरी हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के लिए बहुत कठिन थी। इस आधार पर मदीना छोड़ देने और मर्व में रहने के बाद हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी बहन को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखा और उन्हें मर्व आने के लिए कहा। हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने एक विश्वसनीय व्यक्ति के माध्यम से मदीना पत्र भेजा और उस विश्वसनीय व्यक्ति से कहा कि जितनी जल्दी हो सके वह उनकी बहन को मर्व पहुंचा दे। हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा ने भी भाई का पत्र मिलते ही स्वयं को यात्रा के लिए तैयार कर लिया और मर्व चल पड़ीं। यद्यपि भाग्य इस प्रकार था कि आप अपने भाई से न मिल सकीं।


ज्ञान, सदगुण, चरित्र और आत्मिक विशेषता व परिपूर्णता की दृष्टि से हज़रत मासूमा सलामुल्लाह का स्थान बहुत ऊंचा था। इन वास्तविकताओं को इस्लामी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित आपकी उपाधियों एवं विशेषताओं के माध्यम से देखा जा सकता है। हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के परिजनों के बीच मौजूद हदीस अर्थात हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम व उनके परिजनों के कथनों को बयान करने वालों में विशेष स्थान रखती थीं। आपने अपने पिता और दादा के हवाले से हदीसें बयान की हैं जिन्हें इस्लाम के बड़े-२ धर्मगुरू प्रमाण के रूप में पेश करते हैं। बाल्याकाल से ही ज्ञान एवं आध्यात्मिकता के चिन्ह आपके महान अस्तित्व में प्रतिबिंबित थे। इस्लामी इतिहास में आया है कि आप बचपने में ही धर्मशास्त्र आदि से जुड़े बहुत से प्रश्नों का उत्तर देती थीं। आपके दादा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने आपके जन्म के समय कहा था" उनका मज़ार क़ुम में पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से विशेष ठिकाना है" हज़रत मासूमा के मज़ार के दर्शन के समय जो विशेष दुआ पढ़ी जाती है उसमें आपके महान स्थान के कुछ पहलुओं की ओर संकेत किया गया है। इसी प्रकार महान धार्मिक व्यक्तियों के हवाले से आपकी कुछ उपाधियों का उल्लेख किया गया है जो हज़रत मासूमा के ज्ञान और आध्यात्मिक स्थान की सूचक हैं। सिद्दिक़ा और मोहद्दिसा भी आपकी उपाधियां है।


सिद्दिक़ा का अर्थ है बहुत अधिक सच बोलने वाली महिला और मोहद्दिसा का अर्थ है कथनों एवं घटनाओं को बयान करने वाली महिला। प्रमाणों के आधार पर हज़रत मासूमा करीमये अहलेबैत के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। करीमा अर्थात दानी। हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा क़ुरआन और इस्लामी शिक्षाओं के अनुसरण को सफल जीवन की कुंजी मानती है। आप महान ईश्वर की याद और उसके प्रेम में अपना जीवन बिताती थीं। इस आधार पर धर्म का पूरा अनुसरण करने और क्षण भर के लिए भी सही मार्ग से विचलित न होने के कारण आप मानवीय परिपूर्णता के चरम शिखर पर पहुंच गईं। हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने पवित्रता, ईश्वरीय भय और सदाचारिता के कारण ही आपको मासूमा अर्थात पापों से पवित्र महिला की संज्ञा दी है।


शताब्दियां बीत जाने के बावजूद ईरान के क़ुम नगर में आपका मज़ार हज़ारों श्रद्धालुओं का केन्द्र बना रहता है। देश- विदेश के हज़ारों लोग आपके दर्शन के लिए आते हैं। क़ुम में हज़रत मासूमा का पावन अस्तित्व इस नगर के विकास और उसमें बड़े-२ शिक्षा केन्द्र बनने का कारण बना है। इस्लामी ज्ञान व शिक्षाओं के प्यासे हज़ारों लोग विश्व के विभिन्न कोनों से क़ुम में आकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। क़ुम का धार्मिक शिक्षा केन्द्र मज़बूत एवं सुदृढ़ मोर्चे की भांति है जो इस्लामी सिद्धांतों एवं शिक्षाओं की रक्षा कर रहा है और समय बीतने के साथ महान धर्मगुरूओं एवं विद्वानों ने उसमें शिक्षा ग्रहण की। स्वर्गीय हज़रत इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह उन महान धर्मगुरूओं एवं विद्वानों में से एक हैं जो विश्व में महत्वपूर्ण परिवर्तनों के स्रोत थे। वर्तमान समय में पवित्र नगर क़ुम का धार्मिक शिक्षा केन्द्र प्रज्वलित दीपक की भांति है और वह पवित्र क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों की सर्वोच्च शिक्षाओं के दृष्टिगत अशांत व दिग्भ्रमित विश्व में आज के मनुष्यों का मार्ग दर्शन कर रहा है।


हज़रत मासूमा सलामुल्लाह अलैहा के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर एक बार फिर आप सबकी सेवा में हार्दिक बधाई प्रस्तुत करते हैं और सर्वसमर्थ व महान ईश्वर से इस बात की प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबको पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम तथा उनके पवित्र परिजनों से अधिक से अधिक प्रेम करने एवं उनके द्वारा बताये गये मार्गों पर चलने क्षमता व भावना प्रदान करे। अपने इस कार्यक्रम का समापन हम हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक स्वर्ण कथन से कर रहे हैं। आप कहते हैः जो भी क़ुम में फ़ातेमा अर्थात हज़रत मासूमा का दर्शन करेगा वह उस व्यक्ति की भांति है जिसने हमारा दर्शन किया हो।

सृष्टि, ईश्वर और धर्म

सृष्टि, ईश्वर और धर्म
प्राचीन काल से ही मनुष्य के मन में यह प्रश्न उठता रहा है कि सृष्टि का आरंभ कब हुआ, कैसे हुआ, क्या यह संभव है कि मनुष्य कभी यह समझ सके कि चाँद, सितारे, आकाशगंगाएं, पुच्छलतारे, पृथ्वी, पर्वत, उसकी ऊँची ऊँची चोटियाँ, जंगल, कीड़े-मकोड़े, पशु, पक्षी, मनुष्य, जीव-जन्तु यह सब कहाँ से आए और कैसे बने? हमने और आपने हो सकता है न सोचा हो किन्तु हज़ारों वर्षों से इस पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों ने सोचा और यहीं से धर्म का जन्म हुआ। हम ब्रहमाण्ड की रचना की जटिल बहस का उल्लेख नहीं करेंगे क्योंकि बिग-बैंग, जो इस सृष्टि की रचना का कारण बताया जाता है, उस पर भी वैज्ञानिकों ने बहुत से प्रश्न उठाए हैं। यहाँ बस केवल एक प्रश्न है जो हर काल में प्रायः हर मनुष्य के मन में उठता रहा है कि क्या कोई वस्तु बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है?
एक अरब ग्रामीण से पूछा गया कि तुमने अपने ईश्वर को कैसे पहचाना? तो उसने उत्तर दिया कि ऊँट की मेंगनियाँ, ऊँट का प्रमाण हैं, पद-चिन्ह किसी पथिक का प्रमाण हैं, तो क्या इतना बड़ा ब्रह्माण्ड, यह आकाश, और कई परतों में पृथ्वी, किसी रचयिता का प्रमाण नहीं हो सकती!
यह अत्यधिक सादे शब्दों में ईश्वर के अस्तित्व के बारे में दिया जाने वाला वह प्रमाण है जिस पर बड़े-बड़े दार्शनिकों ने बहस की है और अपने विचार व्यक्त किए हैं, किन्तु अधिकांश लोगों ने ब्रह्माण्ड में मौजूद व्यवस्था को, ईश्वर के अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण माना है।
अल्लामा हिल्ली एक बहुत प्रसिद्ध शीया बुद्धिजीवी थे। उनके काल में एक नास्तिक बहुत प्रसिद्ध हुआ। वह बड़े बड़े आस्तिकों को बहस में हरा देता था, उसने अल्लामा हिल्ली को भी चुनौती दी। बहस के लिए एक दिन निर्धारित हुआ और नगरवासी निर्धारित समय और निर्धारित स्थान पर इकट्ठा हो गए। वह नास्तिक भी समय पर पहुंच गया, किन्तु अल्लामा हिल्ली का कहीं पता नहीं था। काफ़ी समय बीत गया लोग बड़ी व्याकुलता से अल्लामा हिल्ली की प्रतीक्षा कर रहे थे कि अचानक अल्लामा हिल्ली आते दिखाई दिए। उस नास्तिक ने अल्लामा हिल्ली से विलंब का कारण पूछा तो उन्होंने विलंब के लिए क्षमा मांगने के पश्चात कहा कि वास्तव में मैं सही समय पर आ जाता, किन्तु हुआ यह कि मार्ग में जो नदी है उसका पुल टूटा हुआ था और मैं तैर कर नदी पार नहीं कर सकता था, इसलिए मैं परेशान होकर बैठा हुआ था कि अचानक मैंने देखा कि नदी के किनारे लगा पेड़ कट कर गिर गया और फिर उसमें से तख़्ते कटने लगे और फिर अचानक कहीं से कीलें आईं और उन्होंने तख़्तों को आपस में जोड़ दिया और फिर मैंने देखा तो एक नाव बनकर तैयार थी। मैं जल्दी से उसमें बैठ गया और नदी पार करके यहाँ आ गया। अल्लामा हिल्ली की यह बात सुनकर नास्तिक हंसने लगा और उसने वहाँ उपस्थित लोगों से कहाः "मैं किसी पागल से वाद-विवाद नहीं कर सकता, भला यह कैसे हो सकता है? कहीं नाव, ऐसे बनती है?" यह सुनकर अल्लामा हिल्ली ने कहाः "हे लोगो! तुम फ़ैसला करो। मैं पागल हूँ या यह, जो यह स्वीकार करने पर तैयार नहीं है कि एक नाव बिना किसी बनाने वाले के बन सकती है, किन्तु इसका कहना है कि यह पूरा संसार अपने ढेरों आश्चर्यों और इतनी सूक्ष्म व्यवस्था के साथ स्वयं ही अस्तित्व में आ गया है"। नास्तिक ने अपनी हार मान ली और उठकर चला गया।
मानव इतिहास के आरंभ से ही ईश्वर को मानने वाले सदैव अधिक रहे हैं अर्थात अधिकांश लोग यह मानते हैं कि इस संसार का कोई रचयिता है, अब वह कौन है? कैसा है? और उसने क्या कहा है? इस बारे में लोगों में मतभेद है किन्तु यही सच है कि यदि सही अर्थ में कोई धर्म है तो फिर उसका उद्देश्य भी मनुष्य को ईश्वर तक पहुँचाना होता है। वैसे यह बिन्दु भी स्पष्ट रहे कि ईश्वर और धर्म को मानने में ही भलाई हैं, क्योंकि आप दो ऐसे व्यक्तियों के बारे में सोचें कि जिनमें से एक धर्म और ईश्वर को मानता है और दूसरा नहीं मानता। उदाहरण स्वरूप दो व्यक्ति किसी ऐसे नगर की ओर जा रहे हैं जहाँ के बारे में दोनों को कुछ नहीं मालूम है। मार्ग में उन्हें एक अन्य व्यक्ति मिलता है जो उनसे कहता है कि जिस नगर में तुम दोनों जा रहे हो वहाँ खाने पीने को कुछ नहीं मिलेगा, इसलिए उचित होगा कि वहाँ के लिए थोड़ा भोजन और पानी रख लो तो ऐसी स्थिति में बुद्धि क्या कहती है? बुद्धि यही कहती है कि वहाँ के लिए कुछ खाना पानी रख लिया जाए, क्योंकि यदि वह सही कह रहा होगा तो मरने का ख़तरा टल जाएगा और यदि झूठ बोल रहा होगा तो कोई हानि नहीं होगी। अब इस कल्पना के दृष्टिगत एक व्यक्ति ने खाना पानी रखा लिया किन्तु दूसरे ने कहा कि इस व्यक्ति ने मज़ाक़ किया है, या यह कि झूठ बोल रहा था, या यह कि देखने में भरोसे का आदमी नहीं लग रहा था, यह सोच कर उसने कुछ साथ नहीं लिया। नगर आया तो उसने देखा कि खाना पानी सब कुछ था, जो व्यक्ति खाना पानी साथ लाया था उसने उसे फेंक दिया, बस सब कुछ ठीक हो गया, किन्तु दूसरी स्थिति में सोचें कि ये दोनो यात्री उस नगर में जब पहुंचे तो देखा कि वहाँ कुछ भी नहीं था तो अब जिसने अपने साथ खाना पानी रख लिया था, उसकी तो जान बच गई किन्तु जिसने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया था वह भूख और प्यास से मर गया। इसिलए बुद्धि हमें यह सिखाती है कि यदि ख़तरा या लाभ बहुत बड़ा हो तो उसकी सूचना देने वाला चाहे जैसा हो, बुद्धि कहती है कि उसके लिए कुछ प्रबंध अवश्य करना चाहिए। यदि दस ग्लास पानी हमारे सामने रखा है और कोई कहता है कि किसी एक में विष है तो बुद्धि कहती है कि किसी भी ग्लास का पानी न पिया जाए।
इस संसार में बहुत से लोग आए जो विदित रूप से अच्छे मनुष्य थे, लोगों की सहायता करते थे, अच्छे कार्य करते थे, लोकप्रिय थे, किन्तु वे कहा करते थे कि हम ईश्वरीय दूत हैं, इस संसार का एक रचयिता है, मरने के बाद एक अन्य लोक है जहाँ कर्मों का हिसाब किताब होगा और अच्छे कार्य करने वालों को स्वर्ग और बुरे कार्य करने वालों को नरक में भेजा जाएगा। तो फिर इस संदर्भ में हमारी बुद्धि क्या कहती है? यदि हम केवल बुद्धि की बात मानें तो होना यह चाहिए कि हम यह सोचें कि यदि इन लोगों ने सही कहा होगा तो हम स्वर्ग में जाएंगे और नरक में जाने से बच जाएंगे किन्तु यदि उन लोगों ने ग़लत कहा होगा तो मरने के बाद मिट्टी में मिल जाएंगे और परलोक नाम का कोई लोक नहीं होगा और हमें कोई हानि भी नहीं होगी। हमने अपने जीवन में जो अच्छे कर्म किए उसके कारण लोग हमें याद रखेंगे।
इन सब बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि इस सृष्टि का कोई रचयिता है, क्योंकि कोई भी वस्तु बिना बनाने वाले के नहीं बनती। बनाने वाले को अधिकांश लोग मानते हैं, उसे पहचानने के लिए विभिन्न लोगों को भिन्न-भिन्न मार्ग अपनाना पड़ता है। धर्मों में विविधता का कारण यही है। बुद्धि कहती है कि ईश्वर और परलोक की बात करने वालों पर विश्वास किया जाए, क्योंकि अविश्वास की स्थिति में यदि उनकी बातें सही हुईं तो बहुत बड़ी हानि होगी।

सोमवार, 30 अगस्त 2010

रमज़ान-२


सुबह का समय भक्ति व उपासना के लिए कितना अच्छा क्षण है। उस समय ईश्वर से प्रार्थना की उत्सुकता मोमिन की आंखों से नींद उड़ा देती है और उन्हें प्रियतम से भेंट के लिए कहती है। रोज़ा रखने वाले कितने सौभाग्यशाली हैं कि इस महीने उनकी ज़बान ईश्वर के गुणगान में लीन है और वंचितों, अनाथों व असहाय लोगों की सहायता के प्रयास में लगे हैं। निःसंदेह स्वर्ग ऐसे अच्छे लोगों का स्थान है।



जब आंखे रात के समय गहरी नींद में होती हैं उस समय सदाचारी व्यक्तियों के मन में ईश्वर की प्रार्थना की भावना जागृत होती है। वह नर्म बिस्तर से उठते हैं। वज़ू करते हैं और सजदे में जाकर ईश्वर से पापों की क्षमा मांगते हैं। भोर के अद्वितीय क्षणों में उनके मन ईश्वर की याद में लीन हो जाते हैं और उनका पूरा अस्तित्व ईश्वर का गुणगान करता है।
पवित्र क़ुरआन के आलेइमरान सूरे की आयत क्रमांक सोलह और सत्रह में भोर समय पापों के प्रायश्चित को ईश्वर से भय रखने वालों की एक विशेषता कहा गया है। इस आयत में ईश्वर कहता हैः वह लोग जो यह कहते हैं कि प्रभुवर! हम ईमान लाए। हमारे पापों को क्षमा कर दे और हमें नरक की आग से बचा ले। ये सब धैर्य रखने वाले, सच्चे, आज्ञाकारी, और दान दक्षिणा करने वाले और भोर के समय पापों का प्रायश्चित करने वाले हैं।
इस्लाम में रात के समय ईश्वर से प्रार्थना को बहुत महत्वपूर्ण कहा गया है और इसका मन व आत्मा पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। पवित्र रमज़ान के महीने में यह विषय दूसरा रंग रूप ले लेता है। पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने पवित्र रमज़ान में भोर के समय के लिए विशेष प्रार्थनाएं बताई हैं जिसके गहरे अर्थ, ईश्वर और बंदे के बीच बहुत अच्छा संपर्क स्थापित करते हैं। इन विशेष प्रार्थनाओं में दुआए अबु हमज़ा सुमाली और दुआए सहर उल्लेखनीय हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पश्चात ईश्वरीय आदेशानुसार जनता का मार्गदर्शन करने वाले जिन्हें इमाम कहा जाता है, रातों को जाग कर उपासना करने वालों के लिए सर्वश्रेष्ठ नमूना हैं। हमारे युग में भी ऐसे आदर्श लोग मौजूद रहे हैं। ऐसे महापुरुष जिन्होंने ईश्वर से भय और उसकी प्रार्थना द्वारा अंतर्दृष्टि के अथाह सागर में डुबकी लगाई। ऐसे ही लोगों में ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की भी गणना होती है। उनके संबंधियों में से एक संबंधी का कहना है कि मैं पवित्र रमज़ान की एक रात में जब वह आधी बीत चुकी थी, किसी काम से इमाम ख़ुमैनी के कमरे के सामने से गुज़रा। इमाम ख़ुमैनी उस समय ईश्वर से प्रार्थना करते हुए रो रहे थे। इमाम के रोने की आवाज़ का वास्तव में मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा। इमाम उस अर्ध रात्रि को ईश्वर की बहुत ही सुंदर व स्नेहमय ढंग से प्रार्थना कर रहे थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम कहते हैः रात में जाग कर प्रार्थना करना मोमिन की प्रतिष्ठा है और लोगों से किसी चीज़ की आशा न रखने में उसका सम्मान है।

शरीर व आत्मा की तरुणाई तथा आयु में वृद्धि भोर के समय उठने के लाभ हैं। फ़्रांस के शोधकर्ताओं की एक टीम ने यह निष्कर्ष पेश किया है कि भोर के समय उठने से मस्तिष्क की धमनियों में रक्त के जमने और ब्रेन हेमरिज जैसे मस्तिष्क से जुड़े रोग नहीं होते। इन शोधकर्ताओं के अनुसार भोर समय उठने वाले व्यक्ति की हृदय गति धीमी होती है और वह स्ट्रेस व तनाव से कम ग्रस्त होता है। भोर समय उठने से मन व स्नायु तंत्र शांत रहता है और मनुष्य की आजीविका बढ़ती है। ईरानी मनोवैज्ञानिक डाक्टर गुलज़ार कहते हैं कि भोर समय उठने के मन की ताज़गी के अतिरिक्त और भी बहुत से लाभ हैं। चिकित्सकों का मानना है कि कोर्टिसोल नामक हार्मोन, अवसाद विरोधी और रक्त की शर्करा को बढ़ाता है तथा दिन के समय इसका गाढ़ापन एक जैसा नहीं रहता। अवसाद विरोधी इस हारमोन का गाढ़ापन भोर के समय सबसे अधिक होता है।इसलिए भोर के समय व्यक्ति अधिक शांति तथा अपने भीतर अधिक ताज़गी का आभास करता है। इस शारीरिक व मानसिक ताज़गी का सार्थक प्रभाव पड़ता है जिसमें लोगों से अच्छे स्वभाव से मिलना भी शामिल है। भोर समय उठने वाला व्यक्ति अध्ययन सहित दिन चर्या के अन्य कामों के लिए आवश्यक ऊर्जा का अपने भीतर आभास करता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि भोर समय उठने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है और यदि उस समय ईश्वर से छोटी सी प्रार्थना भी हो जाए तो व्यक्ति प्रफुल्लित हो जाता है। मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्श पर पहुंचे हैं कि भोर के समय प्रार्थना करने वाले अधिकांशतः सकारात्मक विचार रखने वाले व्यक्ति होते हैं। निःसंदेह पवित्र रमज़ान का महीना ईश्वर की प्रार्थना और भोर समय उठने के अभ्यास के लिए उचित अवसर है।


सदाचारी व्यक्ति की एक विशेषता सच बोलना है। ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरए माएदा की आयत क्रमांक 119 में कहता हैः आज वह दिन है जब सच बोलने वालों को उनका सच लाभ पहुंचाएगा । उनके लिए स्वर्ग के ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी और वह उसमें सदैव रहेंगे। ईश्वर उनसे प्रसन्न होगा और वह ईश्वर से प्रसन्न होंगे और यही बड़ी सफलता है।

सच बोलने वाले लोग प्रायः निर्भीक, निष्कपट और सुदृढ़ व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं और इसके विपरीत झूठ बोलने वाले, डरपोक, दिखावा करने वाले और कमज़ोर व्यक्तित्व के लोग होते हैं। मनोचिकित्सकों का मानना है कि झूठ बोलने वाले सदैव भीतर से दुखी रहते हैं। चूंकि वे नहीं चाहते कि उनके झूठ की पोल खुले इसलिए उन्हें इस बात की निरंतर चिंता रहती है कि कहीं दूसरे उनकी विरोधाभासी बातों को समझ न जाएं। जबकि सच बोलने वाला व्यक्ति बात करते समय सदैव मानसिक शांति का आभास करता है क्योंकि उसे अपनी बातों के परिणामों की चिंता नहीं रहती। नए वैज्ञानिक शोध के अनुसार झूठ बोलते समय मनुष्य का मस्तिष्क अधिक ऊर्जा लेता है जबकि सच बोलने वाले के साथ ऐसा नहीं है। इन शोधों के अनुसार सच बोलने से मस्तिष्क की शक्ति, ऊर्जा और क्षमता बढ़ती है।

सच बोलने के लाभों में एक यह भी है कि सच बोलने वाले पर लोगों का विश्वास बढ़ जाता है क्योंकि उसकी बातों व व्यवहार में विरोधाभास नहीं दिखाई देता। मनुष्य सामाजिक प्राणी है और सामूहिक रूप से जीवन बिताता है इसलिए दूसरों का उस पर भरोसा करना महत्व रखता है। क्योंकि सामुहिक कार्य जभी संभव होगा जब लोगों को एक दूसरे पर भरोसा हो और वे सच बोलने वाले हों।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के एक साथी उनके पास गए और कहा कि कभी कभी न चाहते हुए पाप हो जाता है। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से पूछा कि वे उसे पाप न करने का समाधान बताएं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः झूठ मत बोलो! उस व्यक्ति ने कहा बस इतना। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लललाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा हां बस इतना ही। वह व्यक्ति चला गया। उसके बाद उस व्यक्ति के सामने पाप करने के कई अवसर आए किन्तु उस समय उसने स्वंय से कहा कि यदि पाप करता हूं और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने पूछ लिया तो क्या उत्तर दूंगा? जबकि पैग़म्बरे इस्लाम को वचन दिया है कि सच बोलूंगा और झूठ से बचूंगा। इस प्रकार आत्म निरीक्षण और सच बोलने पर आग्रह से उस व्यक्ति का चरित्र अच्छा हो गया। ईश्वर पवित्र क़ुरआन के सूरए अहज़ाब में लोगों से सच बोलने के लिए आग्रह करता है कि इसका उनके कर्म में सुधार और पापों की क्षमा में बहुत अधिक प्रभाव है। स्पष्ट है कि हमें अपने कर्म में सुधार के लिए अपनी ज़बान को निर्रथक व झूठी बातों से रोकना होगा और ऐसी बातें करनी होंगी जो सच्ची हों।

निःसंदेह सच बोलने की मनुष्य में शिष्टाचारिक गुण पैदा करने में चमत्कारिक भूमिका है। अरस्तू कहता हैः सच बोलना उस ख़ज़ाने की भांति है जो जितना प्रकट होता है उसके चाहने वाले उतने ही अधिक होते हैं और झूठ छिपी हुई आग की भांति है कि जब प्रकट होती है तो उससे तबाही अधिक होती है।

पवित्र रमज़ान




इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैः ईश्वरीय अतिथि बनना श्रेष्ठता व महानता का वह स्थान है जिस तक पहुंचने की सभी ईश्वरीय दूतों, मोमिनों व महापुरुषों ने कामना की। ईश्वर ने इस उच्च स्थान तक पहुंचने के लिए अपने बंदों को आमंत्रित किया है और उनसे दान दक्षिणा का आह्वान किया तथा बहुत से आत्मिक व आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति की ओर उन्हें बुलाया है। किन्तु यदि उनमें इस उच्च स्थान तक पहुंचने की तत्परता न हो तो वहां नहीं पहुंच सकते। दूषित मन, इन आध्यात्मिक वास्तविकताओं को नहीं समझ सकते। बल्कि मन पर बैठी बुराइयों की मैल जो ईश्वरीय सामिप्य के मार्ग में रुकावट बनी है, हटे ताकि ईश्वर की भव्य व प्रकाशमयी सभा में उपस्थित हुआ जा सके।
पवित्र रमज़ान के अतिथि बनने और इसकी अपार विभूतियों की प्राप्ति के लिए तीन तत्वों चेतना, रूचि और नियम पर ध्यान देने की आवश्यकता है। ज्ञान व अंतर्दृष्टि पहला चरण हैं। यदि पवित्र रमज़ान के संबंध में मनुष्य का दृष्टिकोण आध्यात्मिक व वैज्ञानिक होगा तो उसकी आत्मा पर इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ज्ञान के महत्व के बारे में फ़रमाते हैः हे अली! ज्ञानी का सोना अनपढ़ की उपासना से बेहतर है। चेतना व जागरुकता से व्यक्ति में रूचि पैदा होती है तथा उसकी आध्यात्मिक भावनाएं प्रबल होती हैं। इसलिए क़ुरआन ने अपने निर्देषों व सुझावों में चिंतन मनन पर बहुत बल दिया है और उन लोगों की प्रशंसा की है जो हर समय चाहे खड़े हों या बैठे ईश्वर का गुणगान करते हैं और धरती और आकाश तथा इसके निर्रथक न होने के बारे में सोचते हैं। सोच विचार का महत्व इसलिए है क्योंकि इससे निश्चेत्ता का पर्दा हट जाता है जिसके परिणाम में मनुष्य नई वास्तविकताओं से अवगत होता है और उसे सूझबूझ व अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है। पवित्र क़ुरआन के महान व्याख्याकार अल्लामा तबातबाई लिखते हैं कि मैं जब भी क़ुरआन का अध्ययन करता हूं हर बार नए अर्थ सामने आते हैं और क़ुरआन से मुझे नई नई बातें पता चलती हैं। व्यक्ति में उपासना में रूचि होना भव्य रमज़ान का अतिथि बनने के लिए दूसरा महत्वपूर्ण बिन्दु है। आध्यात्मिक आकर्षण और इस महीने में रोज़े तथा रमज़ान का अतिथि बनने के लिए मनुष्य में एक प्रकार की भावना, इस उपासना के महत्व को उसके निकट दुगुना कर देती है। ईमान वालों को रोज़ा रखना अच्छा लगता है क्योंकि ईश्वर ने इसे रखने पर बल दिया है। उनके लिए रोज़ा कठिनाइयों को सहन करने तथा त्याग व बलिदान का अभ्यास है। रमज़ान में मनुष्य में कामुक व अशिष्ट भावनाएं दब जाती हैं और वह मायामोह के चंगुल से छूट जाता है तथा ईश्वर के प्रकाशमयी दरबार में पापों के बोझ से छुटकारा पाकर हल्का फुल्का पहुंचता है।उपासना के प्रति अनुराग का कारण परिपूर्णतः के इच्छुक मनुष्य में अनन्य व पूज्य ईश्वर से प्रेम है और मनुष्य में यह दशा उस समय होती है जब वह पूज्य ईश्वर की महानता को समझ ले। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः सबसे अच्छा व्यक्ति वह है जिसमें उपासना के प्रति अनुराग हो। उपासना की ओर रूचि से उन्मुख हो और स्वंय को उसमें लीन कर ले। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम इस भावना के साथ एक स्थान पर मनमोहक रमज़ान की प्रशंसा करते हुए इसकी विशेषताओं का वर्णन करते हैं कि सलाम हो तुम पर हे सर्वाधिक मूल्यवान क्षण व सर्वश्रेष्ठ महीने! सलाम हो तुम पर हे मित्र जिसका अस्तित्व मूल्यवान और जिसकी अनुपस्थिति की याद सताए।सलाम हो हे साथी जिसका आगमन प्रसन्नतादायक है। कल कितनी तुम्हारी प्रतीक्षा की और कल पुनः तुम्हारे आगमन की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करूंगा। पवित्र रमज़ान की विभूतियों से पूर्णतः लाभान्वित होने के लिए एक अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु रोज़े के नियमों का पालन है। हर उपासना की औपचारिकता का पालन उसके सौन्दर्य व आकर्षण को बढ़ा देता है। उदाहरण स्वरूप पवित्र क़ुरआन की तिलावत, दीन दुखियों की सहायता, ज़बान को अपशब्द से रोकना तथा दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार रोज़ा रखने के औपचारिक नियम हैं। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान के आगमन पर अपनी मनमोहक प्रार्थनाओं से इसका स्वागत करते और ईश्वर से कामना करते थे कि वह उन्हें सदकर्म का अवसर प्रदान करे। वे ईश्वर से प्रार्थना में कहते थेः हे प्रभु! हम पर कृपा कर कि पूरे रमज़ान के महीने तेरी उपासना करें। इसके समय को हम अपनी उपासनाओं से सुसज्जित करें। दिन में रोज़ा रखने और रात में नमाज़ें पढ़ने में हमारी सहायता कर। हमें अपने संबंधियों से संबंध बनाए रखने, सदकर्म करने और उसे जारी रखने में सफलता प्रदान कर। हमारी सहायता कर ताकि इस महीने में तेरा सामिप्य प्राप्त करें। मोमिन व सदाचारी वे लोग हैं जिनकी विशेषताओं का पवित्र क़ुरआन अपनी अमर शिक्षाओं में बड़े मनमोहक ढंग से वर्णन करता है और जलते हुए दीपक की भांति उन्हें जीवन बिताने की शैली बताता है। सही योजना बनाना जीवन का पहला मान्य सिद्धांत है। योजना व प्रबंधन मामलों के विशेषज्ञों का कहना है कि योजना को तीन चरणों पर आधारित होना चाहिए। पहला चरण संभावनाओं व सीमाओं की पहचान, दूसरा चरण लक्ष्य का निर्धारण और तीसरा चरण लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सर्वश्रेष्ठ शैली का चयन है। एक धर्म के रूप में इस्लाम जिसके पास मानवता के मार्गदर्शन के लिए संपूर्ण कार्यक्रम है, जीवन के मामलों में उपाय तथा योजना पर बल देता है जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम दिन रात के घंटो को सही ढंग से बांटने पर बल देते हुए कहते हैं कि दिन और रात के घंटों में तुम्हारे सभी काम करने की संभावना नहीं है तो इसे अपने काम और आराम के बीच बांट दो।इस आधार पर ईमान से सुसज्जित व्यक्ति अपने जीवन के समय के सदुपयोग के लिए काम व प्रयास को प्राथमिकता देता है। उसकी दृष्टि में काम एक सफल व स्वस्थ जीवन की बुनियाद है और यह मनुष्य के सम्मान की रक्षा के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्व हो सकता है। उसने पवित्र क़ुरआन से यह पाठ लिया है कि मनुष्य के लिए केवल उतना ही है जितना उसने प्रयास किया है और शीघ्र ही उसका प्रयास उसके सामने पेश कर दिया जाएगा। एक अच्छे मुसलमान की छवि ऐसी हो कि वह प्रेरणा व उत्साह भरा हो। वह यह जानता है कि बेगारी और पेट भरना उसे शोभा नहीं देता बल्कि ये चीज़े उसे निराशा व विसंगति की ओर ले जाती हैं। वह प्रयास द्वारा अपने शरीर व मन में मौजूद ऊर्जा का सही ढंग से प्रयोग करता है। इतिहास में है कि एक मुसलमान ने काम करना छोड़ दिया और दिन रात उपासना करने लगा। जब इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम को यह बात पता चली तो उन्होंने बड़े खेद के साथ कहाः धिक्कार हो उस पर क्या वह यह नहीं जानता कि जो व्यक्ति काम नहीं करता उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की जाती। हर धर्म व मत में काम को महत्व दिया गया है। जो चीज़ एक मुसलमान के प्रयास को अधिक मूल्यवान बनाती है वह उसका सदकर्म है। क़ुरआन की दृष्टि में मुसलमान अपने सदकर्म द्वारा अपने आस पास के वातावरण पर प्रभाव डालता है और निरंतर प्रयास के साथ साथ वह इस बात के लिए भी प्रयासरत रहता है कि कहीं भौतिकवाद व उपभोक्तावाद से ग्रस्त न हो जाए। पवित्र क़ुरआन में सदाचारी व्यक्ति की एक और विशेषता यह बयान की गई है कि वह केवल अपने हितों के पीछे नहीं लगा रहता। काम करने के पीछे उसमें जीवन में आनंद, जनेसवा और अनन्य ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति की भावना होती है। वास्तव में ऐसे व्यक्ति के प्रयास का उद्देश्य लोक परलोक की सफलता है। ईश्वर ऐसे व्यक्तियों को शुभसूचना देता है कि वे अपने सदकर्म का फल पाएंगे। जैसा कि इस संदर्भ में पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत क्रमांक दो सौ से दो सौ दो तक हम यह पढ़ते हैं कि कुछ लोग ऐसे है जो कहते हैं कि ईश्वर हमें इस संसार में दे दे और परलोक में उन्हें कुछ नहीं मिलेगा।और कुछ लोग ऐसे हैं जो ईश्वर से कहते हैं कि हमारे साथ इस संसार में और परलोक में भी भलाई कर मुझे नरक के दंड से सुरक्षित रख। यही वे लोग हैं जिन्हें उनके किए का फल मिलेगा और ईश्वर बहुत शीघ्र हिसाब करने वाला है।

बुधवार, 18 अगस्त 2010

हज़रात जहरा की मुख़्तसर जीवनी

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं



नाम व अलक़ाब (उपाधियां)


आप का नाम फ़ातिमा व आपकी उपाधियां ज़हरा ,सिद्दीक़ा, ताहिरा, ज़ाकिरा, राज़िया,
मरज़िया,मुहद्देसा व बतूल हैं।


माता पिता



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के पिता पैगम्बर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा व आपकी
माता हज़रत ख़दीजातुल कुबरा पुत्री श्री ख़ोलद हैं। हज़रत ख़दीजा वह स्त्री
हैं,जिन्होने सर्व- प्रथम इस्लाम को स्वीकार किया। आप अरब की एक धनी महिला थीं तथा
आप का व्यापार पूरे अरब मे फैला हुआ था। आपने विवाह उपरान्त अपनी समस्त सम्पत्ति
इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को दे दी थी। तथा स्वंय साधारण जीवन व्यतीत करती थीं।



जन्म तिथि व जन्म स्थान



अधिकाँश इतिहासकारों ने उल्लेख किया है कि हज़रत फातिमा ज़हरा का जन्म मक्का नामक
शहर मे जमादियुस्सानी (अरबी वर्ष का छटा मास) मास की 20 वी तारीख को बेसत के पांचवे
वर्ष हुआ। कुछ इतिहास कारों ने आपके जन्म को बेसत के दूसरे व तीसरे वर्ष मे भी लिखा
है।एक सुन्नी इतिहासकार ने आपके जन्म को बेसत के पहले वर्ष मे लिखा है।



पालन पोषन



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का पालन पोषन स्वंय पैगम्बर की देख रेख मे घर मे ही हुआ। आप का पालन
पोषन उस गरिमा मय घर मे हुआ जहाँ पर अल्लाह का संदेश आता था। जहाँ पर कुऑन उतरा
जहाँ पर सर्वप्रथम एक समुदाय ने एकईश्वरवाद मे अपना विश्वास प्रकट किया तथा
मरते समय तक अपनी आस्था मे दृढ रहे। जहाँ से अल्लाहो अकबर (अर्थात अल्लाह महान है)
की अवाज़ उठ कर पूरे संसार मे फैल गई। केवल हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा वह बालिका थीं जिन्होंने
एकईश्वरवाद के उद्दघोष के उत्साह को इतने समीप से देखा था। पैगम्बर ने हज़रत
फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा
को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि उनके अन्दर मानवता के समस्त गुण विकसित हो गये।
तथा आगे चलकर वह एक आदर्श नारी बनीं।



विवाह



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का विवाह 9 वर्ष की आयु मे हज़रत अली
अलैहिस्सलाम के साथ हुआ। वह विवाह
उपरान्त 9 वर्षों तक जीवित रहीं। उन्होने चार बच्चों को जन्म दिया जिनमे दो लड़के
तथा दो लड़कियां थीं। जिन के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं। पुत्रगण (1) हज़रत
इमाम हसन (अ0) (2) हज़रत इमाम हुसैन (अ0)। पुत्रीयां (3) हज़रत
ज़ैनब (4) हज़रत उम्मे कुलसूम। आपकी पाँचवी सन्तान गर्भावस्था मे ही
स्वर्गवासी हो गयी थी। वह एक पुत्र थे तथा उनका नाम मुहसिन रखा गया था।



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का ज्ञान



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के ज्ञान का स्रोत वही ज्ञान व मर्म है, जो आप के पिता को अल्लाह
से प्राप्त हुआ था। हज़रत पैगम्बर अपनी पुत्री फ़तिमा के लिए उस समस्त ज्ञान का
व्याख्यान करते थे। हज़रत अली उन व्याख्यानों को लिखते व हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह
अलैहा उन सब
लेखों को एकत्रित करती रहती थीं। इन एकत्रित लेखों ने बाद मे एक पुस्तक का रूप धारण
कर लिया। आगे चलकर यह पुस्तक मुसहफ़े फ़ातिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई।



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का शिक्षण कार्य



हज़रत फ़तिमा स्त्रीयों को कुऑन व धार्मिक निर्देशों की शिक्षा देती व उनको उनके
कर्तव्यों के प्रति सजग करती रहती थीं। आप की मुख्यः शिष्या का नाम फ़िज़्ज़ा था जो गृह
कार्यों मे आप की साहयता भी करती थी। वह कुऑन के ज्ञान मे इतनी निःपुण हो गयी थी
कि उसको जो बात भी करनी होती वह कुऑन की आयतों के द्वारा करती थी। हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा दूसरों को शिक्षा देने से कभी नही थकती थीं तथा सदैव अपनी शिष्याओं का
धैर्य बंधाती रहती थी।



एक दिन की घटना है कि एक स्त्री ने आपकी सेवा मे उपस्थित हो कर कहा कि मेरी माता
बहुत बूढी है और उसकी नमाज़ सही नही है। उसने मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आप से इस
बारे मे प्रश्न करू ताकि उसकी नमाज़ सही हो जाये। आपने उसके प्रश्नो का उत्तर दिया
और वह लौट गई। वह फिर आई तथा फिर अपने प्रश्नों का उत्तर लेकर लौट गई। इसी प्रकार उस
को दस बार आना पड़ा और आपने दस की दस बार उसके प्रश्नों का उत्तर दिया। वह स्त्री
बार बार आने जाने से बहुत लज्जित हुई तथा कहा कि मैं अब आप को अधिक कष्ट नही दूँगी।



आप ने कहा कि तुम बार बार आओ व अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करो । मैं अधिक
प्रश्न पूछने से क्रोधित नही होती हूँ। क्योंकि मैंने अपने पिता से सुना है
कि" कियामत के दिन हमारा अनुसरण करने वाले ज्ञानी लोगों को उनके ज्ञान के अनुरूप
मूल्यवान वस्त्र दिये जायेंगे। तथा उनका बदला (प्रतिकार) मनुष्यों को अल्लाह की ओर
बुलाने के लिए किये गये प्रयासों के अनुसार होगा।"



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की इबादत



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा रात्री के एक पूरे चरण मे इबादत मे लीन रहती थीं। वह खड़े होकर
इतनी नमाज़ें पढ़ती थीं कि उनके पैरों पर सूजन आजाती थी। सन् 110 हिजरी मे मृत्यु
पाने वाला हसन बसरी नामक एक इतिहासकार उल्लेख करता है कि" पूरे मुस्लिम समाज मे
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा से बढ़कर कोई ज़ाहिद, (इन्द्रि निग्रेह) संयमी व तपस्वी नही है।"
पैगम्बर की पुत्री संसार की समस्त स्त्रीयों के लिए एक आदर्श है। जब वह गृह कार्यों
को समाप्त कर लेती थीं तो इबादत मे लीन हो जाती थीं।



हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने पूर्वज इमाम हसन जो कि हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा के बड़े पुत्र हैं
उनके इस कथन का उल्लेख करते हैं कि "हमारी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा बृहस्पतिवार व
शुक्रवार के मध्य की रात्री को प्रथम चरण से लेकर अन्तिम चरण तक इबादत करती थीं।
तथा जब दुआ के लिए हाथों को उठाती तो समस्त आस्तिक नर नारियों के लिए अल्लाह से दया
की प्रार्थना करतीं परन्तु अपने लिए कोई दुआ नही करती थीं। एक बार मैंने कहा कि
माता जी आप दूसरों के लिए अल्लाह से दुआ करती हैं अपने लिए दुआ क्यों नही करती? उन्होंने उत्तर दिया कि प्रियः पुत्र सदैव अपने पड़ोसियों को अपने ऊपर वरीयता
देनी चाहिये।"



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक जाप किया करती थीं जिसमे (34) बार अल्लाहु अकबर (33) बार
अलहम्दो लिल्लाह तथा (33) बार सुबहानल्लाह कहती थीं। आपका यह जाप इस्लामिक समुदाय
मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की तस्बीह के नाम से प्रसिद्ध है। तथा शिया व सुन्नी दोनो
समुदायों के व्यक्ति इस तस्बीह को नमाज़ के बाद पढ़ते हैं।



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का धर्म युद्धों मे योगदान



इतिहास ने हज़रत पैगम्बर के दस वर्षीय शासन के अन्तर्गत आपके 28 धर्म युद्धों तथा
35 से लेकर 90 तक की संख्या मे सरिय्यों का उल्लेख किया है। (पैगम्बर के जीवन
मे सरिय्या उन युद्धों को कहा जाता था जिन मे पैगम्बर स्वंय सम्मिलित नही होते थे।)
जब इस्लामी सेना किसी युद्ध पर जाती तो हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा इस्लामी सेनानियों के परिवार
की साहयता के लिए जाती व उनका धैर्य बंधाती थीं। वह कभी कभी स्त्रीयों को इस कार्य
के लिए उत्साहित करती कि युद्ध भूमी मे जाकर घायलों की मरहम पट्टि करें। परन्तु
केवल उन सैनिकों की जो उनके महरम हों। महरम अर्थात वह व्यक्ति जिनसे विवाह करना
हराम हो।



ओहद नामक युद्ध मे हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अन्य स्त्रीयों के साथ युद्ध भूमि मे गईं इस
युद्ध मे आपके पिता व पति दोनो बहुत घायल होगये थे। हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने अपने पिता के
चेहरे से खून धोया। तथा जब यह देखा कि खून बंद नही हो रहा है तो हरीर(रेशम) के एक टुकड़े
को जला कर उस की राख को घाव पर डाला ताकि खून बंद हो जाये। उस दिन हज़रत अली ने
अपनी तलवार धोने के लिए हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को दी। इस युद्ध मे हज़रत पैगम्बर के चचा
श्री हमज़ा शहीद हो गये थे। युद्ध के बाद श्री हमज़ा की बहन हज़रत सफ़िहा हज़रत
फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के साथ अपने भाई की क्षत विक्षत लाश पर आईं तथा रोने लगीं।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा भी रोईं तथा पैगम्बर भी रोयें।और अपने चचा के पार्थिव शरीर से कहा कि अभी
तक आप की मृत्यु के समान कोई मुसीबत मुझ पर नही पड़ी। इसके बाद हज़रत फ़तिमा व सफ़िहा
से कहा कि अभी अभी मुझे अल्लाह का संदेश मिला है कि सातों आकाशों मे हमज़ा शेरे
खुदा व शेरे रसूले खुदा है। इस युद्ध के बाद हज़रत फातिमा जब तक जीवित रहीं हर
दूसरे या तीसरे दिन ओहद मे शहीद होने वाले सैनिकों की समाधि पर अवश्य जाया
करती थीं।



ख़न्दक नामक युद्ध मे हज़रत फ़तिमा अपने पिता के लिए रोटियां बनाकर ले गयीं
जब पैगम्बर ने प्रश्न किया कि यह क्या है? तो आपने उत्तर दिया कि आपके न होने के
कारण दिल बहुत चिंतित था अतः यह रोटियां लेकर आपकी सेवा मे आगई। पैगम्बर ने कहा कि
तीन दिन के बाद मैं यह पहला भोजन अपने मुख मे रख रहा हूँ।



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा एक आदर्श पुत्री,पत्नि, व माता के रूप मे



आदर्श पुत्री



नौ वर्ष की आयु तक हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता के घर पर रहीं।जब तक उनकी माता
हज़रत ख़दीजा जीवित रहीं वह गृह कार्यों मे पूर्ण रूप से उनकी साहयता करती थीं। तथा
अपने माता पिता की अज्ञा का पूर्ण रूप से पालन करती थीं। अपनी माता के स्वर्गवास के
बाद उन्होने अपने पिता की इस प्रकार सेवा की कि पैगम्बर आपको उम्मे अबीहा कहने लगे।
अर्थात माता के समान व्यवहार करने वाली। पैगम्बर आपका बहुत सत्कार करते थे। जब आप
पैगम्बर के पास आती थीं तो पैगमबर आपके आदर मे खड़े हो जाते थे, तथा आदर पूर्वक अपने
पास बैठाते थे। जब तक वह अपने पिता के साथ रही उन्होने पैगमबर की हर आवश्यकता का
ध्यान रखा। वर्तमान समय मे समस्त लड़कियों को चाहिए कि वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह
अलैहा का अनुसरण
करते हुए अपने माता पिता की सेवा करें।




आदर्श पत्नि



हज़रत फ़तिमा संसार मे एक आदर्श पत्नि के रूप मे प्रसिद्ध हैं। उनके
पति हज़रत अली ने विवाह उपरान्त का अधिकाँश जीवन रण भूमी या इस्लाम प्रचार मे
व्यतीत किया। उनकी अनुपस्थिति मे गृह कार्यों व बच्चों के प्रशिक्षण का
उत्तरदायित्व वह स्वंय अपने कांधों पर संभालती व इन कार्यों को उचित रूप से
करती थीं। ताकि उनके पति आराम पूर्वक धर्मयुद्ध व इस्लाम प्रचार के उत्तर दायित्व को
निभा सकें। उन्होने कभी भी अपने पति से किसी वस्तु की फ़रमाइश नही की। वह घर के सब
कार्यों को स्वंय करती थीं। वह अपने हाथों से चक्की चलाकर जौं पीसती तथा रोटियां
बनाती थीं। वह पूर्ण रूप से समस्त कार्यों मे अपने पति का सहयोग करती थीं। पैगम्बर
के स्वर्गवास के बाद जो विपत्तियां उनके पति पर पड़ीं उन्होने उन विपत्तियों मे
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सहयोग मे मुख्य भूमिका निभाई। तथा अपने पति की साहयतार्थ अपने प्राणो की आहूति दे
दी। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास हो गया तो हज़रत अली ने कहा कि आज मैने अपने
सबसे बड़े समर्थक को खो दिया।



आदर्श माता



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने एक आदर्श माता की भूमिका निभाई उनहोनें अपनी चारों
संतानों को इस प्रकार प्रशिक्षत किया कि आगे चलकर वह महान् व्यक्तियों के रूप मे
विश्वविख्यात हुए। उनहोनें अपनी समस्त संतानों को सत्यता, पवित्रता, सदाचारिता, वीरता,
अत्याचार विरोध, इस्लाम प्रचार, समाज सुधार, तथा इस्लाम रक्षा की शिक्षा दी। वह
अपने बच्चों के वस्त्र स्वंय धोती थीं व उनको स्वंय भोजन बनाकर खिलाती थीं। वह कभी
भी अपने बच्चों के बिना भोजन नही करती थीं। तथा सदैव प्रेम पूर्वक व्यवहार करती
थीं। उन्होंने अपनी मृत्यु के दिन रोगी होने की अवस्था मे भी अपने बच्चों के
वस्त्रों को धोया, तथा उनके लिए भोजन बनाकर रखा। संसार की समस्त माताओं को चाहिए कि
वह हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा का अनुसरण करे तथा अपनी संतान को उच्च प्रशिक्षण द्वारा सुशोभित
करें।



हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा व पैगम्बर के जीवन के अन्तिम क्षण



क्योंकि हज़रत पैगम्बर(स.) का रोग उनके जीवन के अन्तिम चरण मे अत्याधिक बढ़ गया था।अतः
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा हर समय अपने पिता की सेवा मे रहती थीं। उनकी शय्या की बराबर मे बैठी उनके
तेजस्वी चेहरे को निहारती रहती व ज्वर के कारण आये पसीने को साफ़ करती रहती
थीं। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा अपने पिता को इस अवस्था मे देखती तो रोने लगती थीं। पैगम्बर
से यह सहन नही हुआ। उन्होंने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को संकेत दिया कि मुझ से अधिक
समीप हो जाओ। जब हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा निकट हुईं तो पैगम्बर उनके कान मे कुछ कहा जिसे सुन
कर हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा मुस्कुराने लगीं। इस अवसर पर हज़रत फ़ातिमा
सलामुल्लाह अलैहा का मुस्कुराना
आश्चर्य जनक था। अतः आप से प्रश्न किया गया कि आपके पिता ने आप से क्या कहा? आपने
उत्तर दिया कि मैं इस रहस्य को अपने पिता के जीवन मे किसी से नही बताऊँगी। पैगम्बर
के स्वर्गवास के बाद आपने इस रहस्य को प्रकट किया।और कहा कि मेरे पिता ने मुझ से कहा था
कि ऐ फ़ातिमा आप मेरे परिवार मे से सबसे पहले मुझ से भेंट करोगी। और मैं इसी कारण
हर्षित हुई थी।




हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के गले की माला



एक दिन हज़रत पैगम्बर(स.) अपने मित्रों के साथ मस्जिद मे बैठे हुए थे । उसी समय एक व्यक्ति
वहाँ पर आया जिसके कपड़े फ़टे हुए थे तथा उस के चेहरे से दरिद्रता प्रकट थी।
वृद्धावस्था के कारण उसके शरीर की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पैगम्बर उस के समीप गये
तथा उससे उसके बारे मे प्रश्न किया उसने कहा कि मैं एक दुखिःत भिखारी हूँ। मैं भूखा
हूँ मुझे भोजन कराओ, मैं वस्त्रहीन हूँ मुझे पहनने के लिए वस्त्र दो,मैं
कंगाल हूँ मेरी आर्थिक साहयता करो। पैगम्बर ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है
परन्तु चूंकि किसी को अच्छे कार्य के लिए रास्ता बताना भी अच्छा कार्य करने के समान
है। इस लिए पैगम्बर ने उसको हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा के घर का पता बता दिया। क्योकि उनका घर
मस्जिद से मिला हुआ था अतः वह शीघ्रता से उनके द्वार पर आया व साहयता की गुहार की।
हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा ने कहा कि इस समय मेरे पास कुछ नही है जो मैं तुझे दे सकूँ। परन्तु
मेरे पास एक माला है तू इसे बेंच कर अपनी आवश्य़क्ताओं की पूर्ति कर सकता है। यह
कहकर अपने गले से माला उतार कर उस को देदी। य़ह माला हज़रत पैगम्बर के चचा श्री
हमज़ा ने हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा को उपहार स्वरूप दी थी। वह इस माला को लेकर पैगम्बर के पास
आया तथा कहा कि फ़ातिमा ने यह माला दी है। तथा कहा है कि मैं इसको बेंच कर अपनी
अवश्यक्ताओं की पूर्ति करूँ।.



पैगम्बर इस माला को देख कर रोने लगे । अम्मारे यासिर नामक आपके एक मित्र आपके पास
बैठे हुए थे। उन्होंने कहा कि मुझे अनुमति दीजिये कि मैं इस माला को खरीद लूँ
पैगम्बर ने कहा कि जो इस माला को खरीदेगा अल्लाह उस पर अज़ाब नही करेगा। अम्मार ने
उस दरिद्र से पूछा कि तुम इस माला को कितने मे बेंचना चाहते हो? उसने उत्तर दिया कि
मैं इसको इतने मूल्य पर बेंच दूंगा जितने मे मुझे पहनने के लिए वस्त्र खाने
के लिए रोटी गोश्त मिल जाये तथा एक दीनार मरे पास बच जाये जिससे मैं अपने घर
जासकूँ। अम्मार यासिर ने कहा कि मैं इसको भोजन वस्त्र सवारी व बीस दीनार के बदले
खरीदता हूँ। वह दरिद्र शीघ्रता पूर्वक तैयार हो गया। इस प्रकार अम्मारे यासिर ने इस
माला को खरीद कर सुगन्धित किया। तथा अपने दास को देकर कहा कि यह माला पैगम्बर को
भेंट कर व मैंने तुझे भी पैगम्बर की भेंट किया। पैगम्बर ने भी वह माला तथा
दास हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह अलैहा की भेंट कर दिया । हज़रत फ़ातिमा सलामुल्लाह
अलैहा ने माला को ले लिया तथा दास
से कहा कि मैंने तुझे अल्लाह के लिए स्वतन्त्र किया। दास यह सुनकर हंसने लगा।
हज़रत फ़तिमा ने हगंसने का कारण पूछा तो उसने कहा कि मुझे इस माला ने हंसाया क्यों
कि इस ने एक भूखे को भोजन कराया, एक वस्त्रहीन को वस्त्र पहनाये एक पैदल चलने वाले
को सवारी प्रदान की एक दरिद्र को मालदार बनाया एक दास को स्वतन्त्र कराया और अन्त
मे स्वंय अपने मालिक के पास आगई।



शहादत(स्वर्गवास)



आप अपने पिता के बाद केवल 90 दिन जीवित रहीं। हज़रत पैगम्बर के स्वर्गवास के बाद
जो अत्याचार आप पर हुए आप उनको सहन न कर सकीं तथा स्वर्गवासी हो गईं। इतिहासकारों
ने उल्लेख किया है कि जब आप के घर को आग लगायी गई, उस समय आप द्वार के पीछे खड़ी
हुई थीं। जब किवाड़ों को धक्का देकर शत्रुओं ने घर मे प्रवेश किया तो उस समय आप दर
व दीवार के मध्य भिच गयीं। जिस कारण आपके सीने की पसलियां टूट गयीं, व आपका
वह बेटा भी स्वर्गवासी हो गया जो अभी जन्म भी नही ले पाया था। जिनका नाम गर्भावस्था
मे ही मोहसिन रख दिया गया था।




समाधि



चूँकि जिस समय आपकी शहादत हुई उस समय आपका परिवार बहुत ही भयंकर स्थिति से गुज़र
रहा था। चारों ओर शत्रुता व्याप्त थी तथा आपने स्वंय भी वसीयत की थी कि मुझे रात्री के
समय दफ़्न करना तथा कुछ विशेष व्यक्तियों को मेरे जनाज़े मे सम्मिलित न करना। अतः
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने वसीयतानुसार आपको चुप चाप रात्री के समय दफ़्न कर दिया।अतः आपके जनाज़े
(अर्थी) मे केवल आपके परिवार के सदस्य व हज़रत अली के विश्वसनीय मित्र ही सम्मिलित हो पाये थे।
और दफ़्न के बाद कई स्थानो पर आपकी की कब्र के निशान बनाये गये थे। इस लिए
विश्वसनीय नही कहा जासकता कि आपकी समाधि कहाँ पर है। परन्तु कुछ सुत्रों से ज्ञात
होता है कि आपको जन्नातुल बक़ी नामक क़ब्रिस्तान मे दफ़्नाया गया था।



।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिंव वा आले मुहम्मद।।

namaz ka tariqa tasweeron ke sath नमाज़ का तरीका तस्वीरों के साथ

नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा तस्वीर के साथ
यहाँ पर सुबह की दो रकअत नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा तस्वीरों के साथ बताया जा रहा है।
तस्वीर न.1
1-तकबीरःतुल अहराम
यानी नमाज़ पढ़ने की नियत से तस्वीर न.1मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सीधे खड़े होकर दोनों हाथों को कानो तक ले जाने के बाद अल्लाहु अकबर कहना। इस तकबीर से ही नमाज़ शुरू होती है। और अगर यह तकबीर न कही जाये तो नमाज़ बातिल है।
तस्वीर न.2
2-क़ियाम
यानी नियत और तकबीरःतुल अहराम के बाद तस्वीर न.2मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सीधे खड़े होकर सूरए-अलहम्द व कोई दूसरा सुराह पढ़ना।
तस्वीर न.3
3- रुकूअ
यानी सूरए अलहम्द और दूसरा सूरह पढ़ने के बाद तस्वीर न.3मे दिखाये गये तरीक़े की तरह दोनो घुटनें पर हाथ रख कर झुकना और सुबहाना रब्बियल अज़ीमि व बिहम्दिहि पढ़ना।
तस्वीर न.4
4-सजदा
यानी हर रकअत मे रुकूअ के बाद तस्वीर न.4 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह अपनी पेशानी(माथे), दोनो हाथों की हथेलियों,दोनों घुटनो और दोनों पैरों के अंगूँठोँ के सिरों को जानमाज़ पर रखना। मगर पेशानी के लिए ज़रूरी है कि किसी ऐसी चीज़ पर रखी जाये जिस पर सजदा करना सही हो। और इस हालत मे सुब्हानः रब्बियल आला व बिहम्दिहि पढ़ना। हर रकअत मे दो सजदे करना ज़रूरी है।
तस्वीर न. 5
5- तस्वीर न.5 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सीधे खड़े हो कर दूसरी रकअत के लिए एक बार फिर सूरए अलहम्द और उसके बाद कोई दूसरा सूरह पढ़ना।
तस्वीर न.6
6-क़ुनूत
यानी दूसरी रकअत मे रुकूअ मे जाने से पहले तस्वीर न.6 मे दिखाये गये तरीक़े
की तरह खड़े हो कर अल्लाह से दुआ माँगना।
तस्वीर न.7
7- तस्वीर न.7 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह दूसरी रकअत के लिए रुकूअ करना और ज़िक्र रुकूअ को पढ़ना यानी यह कहना सुब्हाना रब्बियल अज़ीमि व बिहम्दिहि।
तस्वीर न.8
8-दूसरी रकअत मे रुकूअ के बाद तस्वीर न.8 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह अपनी पेशानी(माथे), दोनो हाथों की हथेलियों,दोनों घुटनो और दोनों पैरों के अंगूँठोँ के सिरों को जानमाज़ पर रख कर पहली रकअत की तरह दो सजदे करना और सजदे की हालत मे इस ज़िक्र को पढ़ना सुब्हानः रब्बियल आला व बिहम्दिहि। लेकिन याद रहे कि पेशानी के लिए ज़रूरी है कि किसी ऐसी चीज़ पर रखी जाये जिस पर सजदा करना सही हो।
तस्वीर न.9
9- तशःहुद व सलाम
यानी दूसरी रकअत के दोनों सजदों के बाद तस्वीर न.9 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह बैठ कर यह पढ़ना अशहदु अंल्लाह इलाहः इल्लल्लाहु वहदःहु लाशरिकःलःहु व अशहःदु अन्नः मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मःदिंव वा आलि मुहम्मद। अस्सलामु अलैका अय्युहन्नबिय्युहु व रहमःतुल्लाहि व बरःकातुहु। अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस्सालिहीन। अस्सलामु अलैकुम व रहमःतुल्लाहि व बरःकातुहु। इसके बाद दो रकअत नमाज़ तमाम है

वजू का तरीका तस्वीर के साथ wazuu ka tariqa taswiron ke sath

वज़ू का तरीक़ा तस्वीरों के साथ
वज़ू मे कुछ चीज़े मुस्तहब और कुछ वाजिब हैं।
मुस्तहबाते वज़ू
1-दोनों हाथों को तीन बार गट्टों तक धोना।
2-तीन बार कुल्ली करना।
3- तीन बार नाक मे पानी डाल कर नाक को साफ़ करना।
वाजिबाते वज़ू
1- चेहरे का धोना।
2-दोनो हाथों का कोहनियों से उंगलियों के आखरी सिरों तक धोना।
3-सर का मसाह करना।
4-दोनो पैरों का मसाह करना।
यहाँ पर वज़ू के वाजिबात को तस्वीर के साथ ब्यान किया जा रहा है।
तस्वीर न.1


















1- वज़ू करने के लिए तस्वीर न.1 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सबसे पहले दाहिने हाथ मे पानी लेना चाहिए।


तस्वीर न.2



















2-फिर वज़ू की नियत से उस पानी को तस्वीर न.2 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह पेशानी पर डालना चाहिए।


तस्वीर न.3















3- तस्वीर न.3 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह उस पानी से चेहरे को लम्बाई मे बालों के उगने की जगह से ढोडी के आखरी हिस्से तक और चौड़ाई मे उस हिस्से को धोना चाहिए जो अँगूठे और बीच की उंगली के बीच मे आजाये।


तस्वीर न.4















4- चेहरे को धोने के बाद फिर तस्वीर न.4 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह दाहिने हाथ की कोहनी पर पानी डालना चाहिए।



तस्वीर न.5
















5- तस्वीर न.5 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह फिर इस पानी से कोहनी से उंगलियों के सिरों तक पूरे हाथ को धोना चाहिए।


तस्वीर न.6















6- दाहिना हाथ धोने के बाद तस्वीर न.6 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह बायें हाथ की कोहनी पर पानी डालना चाहिए।



तस्वीर न.7




7- तस्वीर न.7 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह बायें हाथ को भी कोहनी से उंगलियों के सिरों तक पूरा धोना चाहिए।



तस्वीर न.8














8- दोनों हाथों को धोने के बाद तस्वीर न.8 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सर का मसाह करने के लिए दाहिने हाथ को सर के बीच मे रखना चाहिए।

तस्वीर न.9














9- फिर अपने हाथ को तस्वीर न.9 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह सर के बीच से बालों के उगने की जगह तक आगे की तरफ खैंचना चाहिए।



तस्वीर न.10

















10- सर का मसाह करने के बाद तस्वीर न.10 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह दाहिने हाथ की उंगलियों को दाहिने पैर की उंगलियों पर रखना चाहिए।
तस्वीर न.11















11- फिर अपने हाथ को तस्वीर न.11 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह ऊपर की तरफ पैर के गट्टे तक खैचना चाहिए।


तस्वीर न.12

















12- फिर बायें पैर का मसाह करने के लिए तस्वीर न.12 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह बायें हाथ की उंगलियों को बाये पैर की उंगलियों पर रखना चाहिए।

तस्वीर न.13

13- और इसके बाद तस्वीर न.13 मे दिखाये गये तरीक़े की तरह अपने हाथ को ऊपर की तरफ़ पैर के गट्टे तक खैंचना चाहिए। इसके बाद वज़ू पूरी हो जाती है।

एक हसीं ख्वाब ek hasin khwab

ek hasin khwab

ek
din maine ek khwab dekha ke khuda ki avaz aai ke main tujhe bahut muhabbat karta hun tere sath hamesha meri rehmat rehti hai tu piche dekh tere rahon main 2 jodi qadamon ke nishan milenege 1 jodi tere 1 jodi meri rehmat ke maine vapas mudkar dekha ke meri zindagi ki rahmain 2 jodi qadmon ke nishan the laiakin maine ek chiz note ki ke jo time meri zindagi ka sabse mushkil bhara tha us time par bas ek hi jodi qadmon ke nishan the maine khuda se pucha malik tune to kaha tha ke har lamha teri rehmat mere sath sath hai laiakin ye kiya: jab meri zindagi ke mushkil waqt mein mujhe teri rehmat ki sabse zyada zaroorat thi tab bas meri rahon mein ek hi jodi qadmon ke nishan the teri rehmat kahan reh gayi thi.khuda ne javab diya""main tumhe sabse zyada muhabbat karta hun .jo teri zindagi ke sakht lamhe the vahan jo ye tu 1 jodi qadmosn ke nishan dekh raha hai ye wo time hai ke jab meri rehmat tujhe god main utha kar chal rahi thi'''''

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

वो सुबह कभी तो आयेगी









पेशे नज़र नज़्म जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहब के अकीदों को और दुनिया के तमाम मज़लूमो की उम्मीदों को लिबासे हकीक़त पहनाते है के जिसमे फैज़ अहमद फैज़ साहब उस सुबह का ज़िक्र करते हें जिसमे दुनिया अदलो इंसाफ से भर जाएगी इमामे अस्रअलैहिस्सलाम की विलादत के अय्याम मैं इस नज़्म के ज़रिये हम नजराने अकीदत पेश करते हैं और दुनिया की हर फर्द को बता देना चाहते हैं के.......................


वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन मे हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरामाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिटटी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा , इज्ज़त को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

१५ शाबान इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम की विलादत






1५ शाबान सन २५५ हिजरी की सुबह सुबह सूरज के आकाश में उगने के साथ साथ खातेमुल ओसिया और खातिमुल ओलिया मुम्किनातकी आखिरी हद ज़मीनऔर असमान के बीचका वास्ता हजरत बकियातुल्लाह इमामे असरे वज्ज्मन अपने वजूदे पुर नूर से ज़मीनों असमान को मुनव्वर फरमाने के लिए अर्शे आलाकी बलंदियों से फर्श पर तशरीफ़ लाये ताकेफर्श को अर्श का रुतबा दे सकें और उनके आगमन से ज़मीन पर असमान के फरिश्तों का आवागमन प्रारम्भ हुआ जो अब तक जारी है और उनके जुहूर तक और ता क़यामे क़यामत जारी रहेगा ओर इस तरह खुदा वन्देआलम ने जो वादाकिया था समाज के दबे कुचले ओर उन लोगों से के जिन्हें ज़ुल्म ने कुचल दिया ओर कमज़ोर बन दिया था के ""हम ये इरादा रखते है अपने उन बन्दों पर के जिन्हें दबा दिया गया है कमज़ोर बना दिया गया है ये अहसान करें के उन्हें इमाम बनाये ओर उन्हें इस दुनिया का वारिस बनाएं": सूरएक़सस आयात -५



१५ शाबान की फ़ज़ीलत ---



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जब इमामे मासूम दुनिया में आता है या यूँ कहा जाये के एक इंसाने कामिल गेय्ब के खजाने से दुनिया के सामने ज़ाहिर होता है तो वो बिलकुल ऐसे ही है जैस्रे कुरान करीम गेय्ब के खजाने से ज़मीन पर नाजिल होता है .ओर चुनके रसूल अल्लाह के वंशज ओर कुरान दोनो हमेशा हमेशा के साथी हैं ओर एक दुसरे के बराबर है इस तरह के इन दोनों में कोई किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है तो हर का हुकम ऐसा ही है जैसेके दुसरे का हुक्म है .इसी लिए अगर कुरान का नाजिल होना शबे कद्र को बा बरकत बनता है तो तख्लिके खुदा की आखिरी हद और इसका खुलासा, की विलादत १५ शाबान की शब् को बा बरकत बना देती है .क्युनके यही एक दोसरे से अलग न होना ही कारक बनता है इस बात के लिए के शबे कद्र और १५ शाबान की शब् कद्र मंज़िलत में बराबर हो क्यूँ की कुरान ओर रसूल के खानदानवाले बराबर है इसलिए इन से निस्बत रखने वाली राते भी बराबर होगी ,जिस तरह शबे कद्र अल्लाह के महीने रमजान की सब रातो से अफज़ल है इसी तरह शबे १५ शाबान भी रसूल अल्लाह के महीने शाबान की सब रातों से अफज़ल होगी ,अतः जिस तरह शबे कद्र के लिए आया है के इस रात में अल्लाह किसी भी बन्दे की कोई दुआ रद्द नहीं करता मगर ये के वो शख्स अपने माँ बाप का नाफरमान हो या शराब पिने वाला हो या मोमिन के लिए अपने दिल में बुग्ज़ ओर कीना रखता हो .इसी तरह रसूल अल्लाह ओर इमामे सादिक अलैहिस्सलाम से रिवायत मिलती है के खुदा वन्दे आलम शबे १५ शाबान में बनी कल्ब के कबीले की बकरियों के बालों के बराबर अपने बन्दों के गुनाहों को बख्श देता है .जब पांचवें इमाम हज़रात मुहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम से इस रात की फ़ज़ीलत के बारे में सवाल किया गया तो इमाम ने फ़रमाया सबसे ज्यादा फ़ज़ीलत की रत शबे कद्र के बाद १५ शाबान की शब् है इसलिए के अल्लाह ताला इस रात में अपने करम को बन्दे पर निछावर कर देता है .ओर अपने रहम से उसके गुनाहों को माफ़ कर देता है इसलिए अल्लाह ताला के नजदीक होने की कोशिश करो इस रात में इसलिए के खुदा ने क़सम खाई है के इस रात में किसी भी दुआ करने वाले की दुआ को अधूरी न रहने दे लेकिन अगर वो गुनाह करने के लिए दुआ करे या किसी के बुरे के लिए दुआ करे तो खुदा कभी कुबूल नहीं करता ,इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया के ये रात वो है के जिसे खुदा ने हम अहलेबैत के लिए चुना है जिस तरह शबे कद्र को रसूल अल्लाह के लिए चुना था ।



रसूल अल्ल्लाह ने इसी रात में आयशा से कहा था के किया तुम्हे पता है आज की रात कौनसी रात है ? आज की रात १५ शाबान की रात है आज की रात में अल्लाह अपने बन्दों की ज़िन्दगी ओर मौत लिखता है ओर अपने बन्दों का रिजक निर्धारित करता है इस रात खुदा अपने फरिश्तों को पहले इस दुनिया के आकाश पर भेजता है और फिर ज़मीन पर भेजता है ताके वो खुदा के बन्दों को खुश खबरी दे सकें के आज अल्लाह तुम सबकी दुआओं को कुबूल कर लेगा।



आज की शब् हम सब को जश्न मानना चाहिए क्यूँ की आज इस दुनिया के आखिरी वारिस ,ग़रीबों ओर कमजोरो के मसीहा ,दीन को ज़िन्दगी देने वाले ओर मोमिनों के दिल की ठंडक दुनिया को इंसाफ ओर शांति से भर देने वाले की विलादत की रात है.आज की रात में गुसल करना नए कपडे पेहेनना ख़ुशी मनाने का बड़ा सवाब ओर पुण्य है आज की रात में दुआए कुमैल पढने ओर इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम की जियारत की ताकीद की गयी है ओर आज की रात में हमें अपने इमामें ज़माना को अरिज़ा <पत्र > लिखना चाहिए ओर उनसे जुहूर के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ओर उस अरिज़े को दरया ,नेहर या कुंवे मेंडाल देना चाहिए ।



ओर खुदा से दुआ करनी चाहिए के परवर दीगार हमारे मोला ओरहमारे इमाम के जुहूर में जल्दी farma ओर हमें उनके असहाब ओर अंसार में शामिल कर आमीन .