मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

किशोरों में आत्म विश्वास उत्पन्न करना




किशोरावस्था की समस्याओं और किशोरों में आत्म विश्वास उत्पन्न करना


हम सब जानते हैं कि एक किशोर की भावनाओं, अनुभूतियों, इच्छाओं, आकांक्षाओं यहॉ तक कि उसके शरीर में जो परिवर्तन उत्पन्न होते हैं उनकी पहचान प्राप्त करना किशोर के साथ उसके आस - पास के लोगों विशेषकर बड़ों और माता - पिता के बीच एक तार्किक संबंध उत्पन्न करने की कुन्जी है। यहॉ पर हम कुछ ऐसे बिन्दुओं की ओर संकेत करेंगे जिनपर ध्यान देकर किशोर तथा माता - पिता एक दूसरे के साथ अधिक निकटता का आभास करें।










मनुष्य अपनी पूरी आयु में प्रशिक्षण प्राप्त करता रहता है, दूसरे शष्दों में मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रशिक्षण की प्रक्रिया से गुज़रता रहता है जो उसके आस - पास के लोग एवं वातावरण उसे सिखाता है। अलबत्ता जीवन के आरम्भिक दिनों से लेकर युवावस्था तक प्रशिक्षण का विशेष महत्व होता है। इसलिए अच्छा है कि इसी आयु में हम अपने बच्चों को यह सिखाएं कि मनुष्य को अपने जीवन में कुछ चीज़ों पर विश्वास होना चाहिए और उनके प्रति उसे कटिबद्ध रहना चाहिए।


शिष्टाचारिक नियमों, सामाजिक रीति - रिवाजों और मनुष्य के विश्वासों को धर्म कहा जाता है। धर्म कारण बनता है कि मनुष्य भ्रष्टचार से बचे और जीवन में उसे कल्याण प्राप्त हो। यदि इसके विपरित हो तो मनुष्य एक ऐसे जीव में परिवर्तित हो जाए गा जिसे बुराइयों से कोई रोक नहीं सकता।


नि: सन्देह युवाओं में सही शिष्टाचारिक नियमों विशेषकर धार्मिक नियमों के प्रति कटिबद्धता की भावना उत्पन्न करके उसे बहुत सारी कठिनाइयों तथा युवावस्था की समस्याओं से बचाया जा सकता है। इससे माता - पिता के साथ उनकी सन्तान के संबंधों को बेहतर बनाने में भी सहायता मिलती है।


माता - पिता को चाहिए कि वे अपने बच्चों के लिए पवित्रता तथा नैतिकता का उदाहरण बने ताकि बच्चे उनसे इसे सीख सकें।










घर को एक शान्त एवं सुरक्षित स्थान में परिवर्तित करें ताकि युवा अपनी समस्याओं के समाधान के लिए घर ही की शरण में आएं।यदि हम युवा के साथ एक स्वस्थ और तार्किक संबंध स्थापित कर सकें तो हम उसके वैचारिक संसार में क़दम रख सकते हैं और यह उसके सफल प्रशिक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण क़दम है।


मनोविज्ञान ने यह प्रभाणित कर दिया है कि जिस प्रकार बच्चे को माता के प्रेम व स्नेह की आव्श्यकता है उसी प्रकार उसे पिता के प्रेम की भी आवश्यकता होती है।










दूसरों के सम्मुख युवाओं का अपमान कदापि नहीं करना चाहिए। आप युवा को यह समझाएं कि उसके कोर्यों की ज़िम्मेदारी केवल उसी पर है और आप आवश्यकता पड़ने पर उसकी सहायता कर सकते हैं।


युवाओं के अपने कुछ विशेष विचार होते हैं, उनके कोमल एवं सवेंदनशील संसार को कदापि तुच्छ न समझें हमें प्रयास करना चाहिए कि युवा की रुचि के अनुकूल उसके लिए उचित साधन जुटाएं ताकि उसे वैचारिक पथभ्रष्टता से बचा सकें। मित्र तथा युवा की आयु के उसके साथी, उसके व्यक्तित्व निर्भाण में बहुत प्रभावी भूमिका निमाते हैं। इसलिए हमें सर्तक रहना चाहिए कि उसके घनिष्ट मित्र कौन हैं, उनकी क्या विशेषताएं हैं और उनके परिवार पर किस विशेष संस्कृति का प्रभाव है। क्योंकि युवा अपने मित्रों का अनुसरण बड़ी जल्दी करने लगता है और यदि उसके मित्र विश्वसनीय और उचित न हों तो क्या हो सकता है यह आप स्वंम सोचें।










हमें अपनी युवा सन्तानों का मित्र और साथी होना चाहिए। बजाए इसके कि उसके मुक़ाबले में खड़े हो जाएं या उसपर नियन्त्रण रखने के लिए निरन्तर उसका पीछा करते रहें या अकारण ही उसकी आलोचना करें जिससे केवल युवा की प्रतिक्रियाएं ही सामने आएं गी, हमें चाहिए कि उसके मित्र बनकर रहें।


युवा को ऐसे किसी की खोज होती है जो उसकी बातों को ध्यान से सुने और उसके विशेष संसार को पहचाने।


आइए हम युवा का विश्वास प्राप्त करने का प्रयास करें।


जब कभी विचार विमर्श की बात होती है तो पहली चीज़ जो समझ में आती है वो यह है कि किसी को कोई परेशानी है और वो किसी ऐसे से विचार विमर्श करना चाहता है जो उससे अधिक जानकार हो ताकि उसकी समस्या का समाधान हो सके। मनुष्य की समस्याएं संभव है विभिन्न क्षेत्रों में हों। एक प्रश्न यहॉ पर यह उठता है कि क्या एक सन्तान सलाहकार के पास जा सकती है? या यह कि क्या एक सन्तान हमारी समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकती है? हम माता - पिता को कभी कभी ऐसी कठिनाइयों का सामना होता है जिसे अपनी सन्तान के साथ सलाह - मशवरा करके हल किया जा सकता है और इस विचार विमर्श से समस्या के समाधान के अतिरिक्त कई और लाभ हैं।










माता - पिता, प्रशिक्षक या वो सभी, जिन्हें कसी न किसी रूप से बच्चों तथा युवाओं से काम रहता है, कभी न कभी ऐसे स्थान पर पहुंच जाते हैं जहॉ उन्हें निर्णय लेना पड़ता है। स्वाभाविक है कि बड़ें यदि छोटों की सलाह के महत्व व भूमिका से अनभिज्ञ हों तो बड़ी सरलता से वो उनके लिए निर्णय ले सकते हैं।


परन्तु क्या सदैव यह निर्णय बेहतरीन और सबसे उचित निर्णय हैं? यदि ऐसा हो भी तो इससे बच्चे या युवा के आत्म विश्वास तथा व्यक्तित्व विकास को ठेस नहीं पहुंचेगी? अर्थात सन्तान क्या उस स्थान पर नहीं पहुंचे गी जहॉ उसे ऐसा लगने लगे कि जीवन में उसकी कोई भूमिका नहीं है और उसके लिए दूसरे निर्णय लेते हैं।










इसलिए हम माता - पिता और सभी बड़ों से यह आग्रह करते हैं कि अपने बच्चों से सलाह - मशरा करने को गंभीरता से लें और इसे उसके व्यक्तित्व के विकास का महत्वपूर्ण कारक समझें। विचार विमर्श या सलाह, बच्चे की आयु और उसके अनुभवों तथा सूचनाओं की मात्रा के अनुकूल होना चाहिए।


अर्थात जिन विषयों या मामलों का उससे संबंध नहीं है, या अपने विचार व्यक्त करने के लिए उसके पास पर्याप्त ज्ञान नहीं है। उन्हें उसके सामने नहीं रखना चाहिए।










ऐसे नियम जिनपर आप को विश्वास हो और जिनके बारे में आपके विचार परिवर्तित नहीं हो सकते उनपर भी किसी की राय मत लीजिए। अपने बच्चे के दृष्टिकोंण स्वीकार करने के लिए स्वंम को तैयार कीजिए। उसके सम्मुख दो मार्ग रखिए, वो जिसे चाहे कर ले। उदाहरण स्वरूप यह मत पूछिए कि तुम्हारे विचार में इन छुट्टियों में क्या किया जाए? बल्कि ऐसे दो कार्य जो कुद्धियों में किए जा सकते हैं , उसके सामने रखें और उससे कहिए कि किसी एक का चयन कर ले।


सलाह - मशवरे में अपने बच्चे की सहायता कीजिए ताकि वो यह सीखे कि एक ही विषय के विभिन्न आयोमों पर पहले विचार फिर निर्णय लिया जाता है। उसे यह भी समझाइए कि कोई राय पेश करने का अर्थ यह नहीं है कि यही आन्तिम निर्णय है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें