आज विवाह के संबंध में बात-चीत करेंगे। यह ऐसा विषय है जो युवावस्था में प्राय: एक समस्या के रूप में सामने आता है। आरम्भ में हम इस्लामी देशों में विवाह के विषय पर चर्चा करेंगे।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने अपने एक विख्यात कथन में विवाह को अपनी परम्परा का एक भाग बताया है।
पवित्र क़ुरआन में विवाह का उद्देश्य दम्पतियों को एक दूसरे के पास शान्ति प्राप्त करना बताया गया है। इसे प्रेम व अनुकम्पा का सार कहा गया है। इसी लिए इस ईश्वरीय ग्रन्थ में परिवार के गठन और एक स्वस्थ पीढ़ी को जन्म देने पर अत्याधिक बल दिया गया है। परन्तु हम देखते हैं कि इतने ही अधिक बल दिए जाने पर भी, इस्लामी देशों में विवाह के ऑकड़ों में कमी आई है।और इसके परिणाम भी अनुचित निकले हैं। इस्लामी जगत में इस सामाजिक कुरीति के दो कारण हैं। इनमें से एक इस्लामी देशों पर पश्चिम के आधुनिक विचारों का प्रभाव है।
पश्चिम ने अपने विशेष ऐतिहासिक सांस्कृतिक उद्देश्यों के अनतर्गत धार्मिक धारणाओं, मूल्यों यहॉं तक कि परिवार व विवाह जैसे सामाजिक मूल्यों से मुंह मोड़ लिया है कोई भी सच्चा बुद्धिजीवी या विचारक प्रगतिवाद या अश्लीलता के ख़तरनाक परिणामों को नहीं नकारता और उस स्थान के सुधारकों ने भी प्रति- दिन होते पतन व मूल्यों के संकट पर बारम्बार चेतावनी दी है। पश्चिम में अवैध तथा बिना अभिभावक के बच्चों की संख्या में वृद्धि के चिन्ताजनक आंकड़ों के समाचार मिलते रहते हैं। अवैध होने के कारण इन बच्चों के मन में घृणा तथा ईष्या भरी होती है। यह बड़े होकर हत्या, हिंसा, अतिक्रमण तथा समाज में भ्रष्टाचार फैला कर अपने मन में छिपे द्वेष को व्यक्त करते हैं। इसी आधार और हद से अधिक स्वतन्त्रता के कारण, इन देशों में युवा सबसे अधिक भ्रष्ट लोगों में गिने जाते है।
खेद से कहना पड़ता है कि इस्लामी देशों में कुछ प्रगतिवादी इस बड़े सांस्कृतिक व ऐतिहासिक अन्तर पर बिना ध्यान दिए हुए ही पश्चिमी संस्कृति के दिखावे के जाल में फॅंस जाते हैं और इसी कारण यह लोग विवाह से दूरी और कठिनाइयों से भाग कर, महिला व पुरूष के संबंधों में स्वतन्त्रता, स्नेह संबंधी भावनाओं और शिष्टाचार की क़ैद से रिहाई को ही प्रगतिवाद, विकास और उन्नति की सॅंज्ञा देने लगते हैं।
विवाह की दर में कमी आने का दूसरा कारण स्वंय इस्लामी समाजों के भीतर ढूंढना चाहिए। इस्लामी देशों में कुछ लोगों ने विवाह की वास्तविक आवश्यकता तथा उससे संबंधित उचित रीति-रिवाजों को भुलाकर, विवाह को एक अत्यन्त कठिन बन्धन, दिखावा, प्रतिस्पर्धा तथा घमण्ड करने का एक साधन बना दिया है। इन लोगों ने विवाह के लिए ग़ैर इस्लामी शर्तें लगा कर और दम्पत्ति धार्मिक भावनाओं के मापदण्ड की उपेक्षा करके मनुष्य के सबसे उत्कृष्ट संबंध को एक बहुत बड़ी समस्या का रूप दे दिया है।ख्याति प्राप्त करने को महत्व दिया जाना, समाज में वर्ग की समस्या, पोस्ट या रोज़गार की स्थिति यह सभी वो रूकावटें हैं जिन्होंने स्वस्थ व स्थाई विवाह के मार्गों को बन्द कर रखा है। उदाहरण स्वरूप भारत जैसे देश में यदि बहू अच्छा दहेज लेकर नहीं आती तो उसे पति और उसके घर वालों के क्रोध व हिंसा का सामना करना पड़ता है। और कभी कभी दहेज न होने के कारण कुछ बहुएं स्वंय को जला लेती हैं या उन्हें पति या उसके घर वालों द्वारा जला कर मार डाला जाता है। पाकिस्तान में भी दहेज देने में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि प्राय: अपनी बेटी के विवाह के लिए पिता दीवालिया हो जाता है।
इस्लामी संस्कृति में विवाह का प्रचलन, समाज के कल्याण की ज़मानत है इसलिए इस संबंध में की जाने वाली उपेक्षा इस्लामी समाजों के किसी भी मुसल्मान की ओर से स्वीकार्य नहीं है। विशेषकर कि जब इस संबंध में युवा पीढ़ी को सबसे अधिक आधा लगता है।
इस संबंध में जिस चीज़ की सबसे अधिक आव्शयकता है वो इस्लाम में विवाह की भावना व नियमों का ज्ञान और इस्लामी नियमों से कुछ कुरीतियों को अलग किया जाना है।
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