सूरए बक़रह की अटटठारहवीं आयत हैः
صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُونَ
इस आयत का अनुवाद इस प्रकार हैः
वे लोग अर्थात मिथ्याचारी सत्य सुनने से बहरे, सत्य बोलने से गूंगे तथा सत्य देखने से अंधे हैं अतः वे अपने कुफ़्र को छोड़कर सत्य की ओर आने वाले नहीं हैं। यद्यपि मिथ्याचारी भी अन्य लोगों की भांति आंख, कान और ज़बान रखता है परन्तु उसकी आंख सत्य तथा वास्तविकता को देखने के लिए उसके कान सत्य बात को सुनने के लिए और उसकी ज़बान वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होती इसीलिए पवित्र क़ुरआन में मिथ्याचारियों को ऐसे लोगों के समान बताया गया है जिनके पास मानों शरीर के यह अंग हैं ही नहीं। इस आयत के अतिरिक्त दूसरी अन्य आयतों में भी मिथ्याचारियों के बारे में "ला यशअरून" "ला यालमून" तथा "ला युबसिरून" जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है।
भेदभाव तथा अंधे अनुसरण का परिणाम, वास्तविक्ताओं को न समझने तथा हृदय के अंधकार के रूप में सामने आता है। मिथ्याचारी का आंतरिक कुफ़्र, उसकी आंख, कान तथा ज़बान को इस प्रकार प्रभावित करता है और वास्तविकताओं को छिपाता है कि काफ़िरों की ही भांति वह भी वास्तविक्ताओं को उल्टा देखता है और सत्य तथा असत्य में अंतर की शक्ति खो बैठता है।
पिछली आयत में कहा गया है कि ईमान के प्रकाश की समाप्ति के पश्चात कुफ़्र का अंधकार इस प्रकार उसके असितत्व को अपने घेरे में ले लेता है कि उसमें देखने की शक्ति ही नहीं रह जाती परन्तु यह आयत कहती है कि वह न केवल देखने की शक्ति बल्कि वास्तविकता और सत्य को सुनने और कहने की शक्ति भी खो देता है और अंधकारमय घाटी में चलने का परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तथा इस मार्ग से वापसी एवं मोक्ष की कोई भी संभावना नहीं है।
रविवार, 25 जुलाई 2010
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