गुरुवार, 29 जुलाई 2010

वो सुबह कभी तो आयेगी









पेशे नज़र नज़्म जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहब के अकीदों को और दुनिया के तमाम मज़लूमो की उम्मीदों को लिबासे हकीक़त पहनाते है के जिसमे फैज़ अहमद फैज़ साहब उस सुबह का ज़िक्र करते हें जिसमे दुनिया अदलो इंसाफ से भर जाएगी इमामे अस्रअलैहिस्सलाम की विलादत के अय्याम मैं इस नज़्म के ज़रिये हम नजराने अकीदत पेश करते हैं और दुनिया की हर फर्द को बता देना चाहते हैं के.......................


वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुःख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन मे हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरामाएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

माना के अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं
मिटटी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं
इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को न कुचला जायेगा , इज्ज़त को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आयेगी

बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

१५ शाबान इमामे ज़माना अलैहिस्सलाम की विलादत






1५ शाबान सन २५५ हिजरी की सुबह सुबह सूरज के आकाश में उगने के साथ साथ खातेमुल ओसिया और खातिमुल ओलिया मुम्किनातकी आखिरी हद ज़मीनऔर असमान के बीचका वास्ता हजरत बकियातुल्लाह इमामे असरे वज्ज्मन अपने वजूदे पुर नूर से ज़मीनों असमान को मुनव्वर फरमाने के लिए अर्शे आलाकी बलंदियों से फर्श पर तशरीफ़ लाये ताकेफर्श को अर्श का रुतबा दे सकें और उनके आगमन से ज़मीन पर असमान के फरिश्तों का आवागमन प्रारम्भ हुआ जो अब तक जारी है और उनके जुहूर तक और ता क़यामे क़यामत जारी रहेगा ओर इस तरह खुदा वन्देआलम ने जो वादाकिया था समाज के दबे कुचले ओर उन लोगों से के जिन्हें ज़ुल्म ने कुचल दिया ओर कमज़ोर बन दिया था के ""हम ये इरादा रखते है अपने उन बन्दों पर के जिन्हें दबा दिया गया है कमज़ोर बना दिया गया है ये अहसान करें के उन्हें इमाम बनाये ओर उन्हें इस दुनिया का वारिस बनाएं": सूरएक़सस आयात -५



१५ शाबान की फ़ज़ीलत ---



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जब इमामे मासूम दुनिया में आता है या यूँ कहा जाये के एक इंसाने कामिल गेय्ब के खजाने से दुनिया के सामने ज़ाहिर होता है तो वो बिलकुल ऐसे ही है जैस्रे कुरान करीम गेय्ब के खजाने से ज़मीन पर नाजिल होता है .ओर चुनके रसूल अल्लाह के वंशज ओर कुरान दोनो हमेशा हमेशा के साथी हैं ओर एक दुसरे के बराबर है इस तरह के इन दोनों में कोई किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है तो हर का हुकम ऐसा ही है जैसेके दुसरे का हुक्म है .इसी लिए अगर कुरान का नाजिल होना शबे कद्र को बा बरकत बनता है तो तख्लिके खुदा की आखिरी हद और इसका खुलासा, की विलादत १५ शाबान की शब् को बा बरकत बना देती है .क्युनके यही एक दोसरे से अलग न होना ही कारक बनता है इस बात के लिए के शबे कद्र और १५ शाबान की शब् कद्र मंज़िलत में बराबर हो क्यूँ की कुरान ओर रसूल के खानदानवाले बराबर है इसलिए इन से निस्बत रखने वाली राते भी बराबर होगी ,जिस तरह शबे कद्र अल्लाह के महीने रमजान की सब रातो से अफज़ल है इसी तरह शबे १५ शाबान भी रसूल अल्लाह के महीने शाबान की सब रातों से अफज़ल होगी ,अतः जिस तरह शबे कद्र के लिए आया है के इस रात में अल्लाह किसी भी बन्दे की कोई दुआ रद्द नहीं करता मगर ये के वो शख्स अपने माँ बाप का नाफरमान हो या शराब पिने वाला हो या मोमिन के लिए अपने दिल में बुग्ज़ ओर कीना रखता हो .इसी तरह रसूल अल्लाह ओर इमामे सादिक अलैहिस्सलाम से रिवायत मिलती है के खुदा वन्दे आलम शबे १५ शाबान में बनी कल्ब के कबीले की बकरियों के बालों के बराबर अपने बन्दों के गुनाहों को बख्श देता है .जब पांचवें इमाम हज़रात मुहम्मद बाकिर अलैहिस्सलाम से इस रात की फ़ज़ीलत के बारे में सवाल किया गया तो इमाम ने फ़रमाया सबसे ज्यादा फ़ज़ीलत की रत शबे कद्र के बाद १५ शाबान की शब् है इसलिए के अल्लाह ताला इस रात में अपने करम को बन्दे पर निछावर कर देता है .ओर अपने रहम से उसके गुनाहों को माफ़ कर देता है इसलिए अल्लाह ताला के नजदीक होने की कोशिश करो इस रात में इसलिए के खुदा ने क़सम खाई है के इस रात में किसी भी दुआ करने वाले की दुआ को अधूरी न रहने दे लेकिन अगर वो गुनाह करने के लिए दुआ करे या किसी के बुरे के लिए दुआ करे तो खुदा कभी कुबूल नहीं करता ,इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया के ये रात वो है के जिसे खुदा ने हम अहलेबैत के लिए चुना है जिस तरह शबे कद्र को रसूल अल्लाह के लिए चुना था ।



रसूल अल्ल्लाह ने इसी रात में आयशा से कहा था के किया तुम्हे पता है आज की रात कौनसी रात है ? आज की रात १५ शाबान की रात है आज की रात में अल्लाह अपने बन्दों की ज़िन्दगी ओर मौत लिखता है ओर अपने बन्दों का रिजक निर्धारित करता है इस रात खुदा अपने फरिश्तों को पहले इस दुनिया के आकाश पर भेजता है और फिर ज़मीन पर भेजता है ताके वो खुदा के बन्दों को खुश खबरी दे सकें के आज अल्लाह तुम सबकी दुआओं को कुबूल कर लेगा।



आज की शब् हम सब को जश्न मानना चाहिए क्यूँ की आज इस दुनिया के आखिरी वारिस ,ग़रीबों ओर कमजोरो के मसीहा ,दीन को ज़िन्दगी देने वाले ओर मोमिनों के दिल की ठंडक दुनिया को इंसाफ ओर शांति से भर देने वाले की विलादत की रात है.आज की रात में गुसल करना नए कपडे पेहेनना ख़ुशी मनाने का बड़ा सवाब ओर पुण्य है आज की रात में दुआए कुमैल पढने ओर इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम की जियारत की ताकीद की गयी है ओर आज की रात में हमें अपने इमामें ज़माना को अरिज़ा <पत्र > लिखना चाहिए ओर उनसे जुहूर के लिए प्रार्थना करनी चाहिए ओर उस अरिज़े को दरया ,नेहर या कुंवे मेंडाल देना चाहिए ।



ओर खुदा से दुआ करनी चाहिए के परवर दीगार हमारे मोला ओरहमारे इमाम के जुहूर में जल्दी farma ओर हमें उनके असहाब ओर अंसार में शामिल कर आमीन .



रविवार, 25 जुलाई 2010

एक चोर की कहानी

पुराने समय की बात है कि एक लड़का था जिसे यह नहीं ज्ञात था कि चोरी किसे कहते हैं। उसे तला हुआ अंडा या अंडायुक्त भोजन बहुत पसंद था। एक दिन जब उसे तला अंडा खाने की बहुत अधिक इच्छा हुई तो उसने अपनी मां से कहाः मां अंडा तल कर दीजिए। उसकी मां ने उत्तर दियाः बाद में तल दूंगी। इस समय अंडे समाप्त हो चुके हैं। मुर्ग़ी के पुनः अंडा देने तक प्रतीक्षा करनी होगी। वह बच्चा दो दिन प्रतीक्षा नहीं करना चाह रहा था इसलिए घर से बाहर निकल गया। उसके पड़ोसी ने काबुक में कई मुर्ग़ियां और मुर्ग़े पाल रखे थे। वह बच्चा पड़ोसी के काबुक की ओर गया और उसकी जाली से हाथ डालकर उसने दो तीन अंडे चुरा लिए और घर लौट आया। संयोगवश दोपहर का समय था और मौसम गर्म था उसका पड़ोसी घर के कमरे में आराम कर रहा था इसलिए पड़ोसी के घर का कोई सदस्य उस बच्चे को अंडा चोरी करते नहीं देख पाया। बच्चा प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया। घर पहुंच कर उसने अंडे मां को दिए और उसे तलने के लिए अनुरोध किया। मां ने जब अंडे देखे तो पूछा कि ये अंडे कहां से लाए? बच्चे ने हंस कर उत्तर दिया कि पड़ोसी के काबुक से। मां ने बच्चे से यह कहने के बजाए कि यह बुरा कर्म है, यह चोरी है, अंडे ले जाकर वापस करो, कुछ क्षण सोच कर बच्चे से पूछाः किसी ने तुम्हें देखा तो नहीं? बच्चे ने उत्तर दियाः नहीं। मां ने प्रेमभाव से कहाः ठीक है अंडे तल दे रही हूं किन्तु यह याद रहे कि तुमने पड़ोसी के काबुक से अंडे उठा कर भला कर्म नहीं किया है। बच्चा यह समझ गया कि पड़ोसियों को उसके कर्म के बारे में ज्ञात नहीं होना चाहिए। कुछ दिनों के पश्चात फिर अंडे समाप्त हो गए। इस बार यह बच्चा दबे पांव पड़ोसी के काबुक तक पहुंचा और आस पास उसने भलिभांति देख लिया कि कोई देख तो नहीं रहा है। उसने काबुक से कुछ अंडे उठाए और तेज़ी से घर भागा। जब उसने अंडे मां के हवाले किए तो मां ने कोई विरोध नहीं जताया। केवल यह पूछा कि कहीं पड़ोसी ने तो नहीं देखा? और फिर प्रेमभाव से कहाः बेटा यह अच्छा कर्म नहीं है। कुछ मिनट में अंडा तल कर आ गया। मां और बेटे दोनों ने खाया। धीरे धीरे बच्चा बड़ा हो रहा था। कभी कभी इधर उधर से कुछ न कुछ चोरी करता रहता। चोरी की गई वस्तुओं को या घर ले आता या फिर अपने मित्रों के बीच बांट कर मज़े उड़ाता। कुछ वर्षों के पश्चात वह छोटा बच्चा युवा हो गया और फिर एक दिन चोरी के अपराध में उसे पकड़ लिया गया। उसने इस बार एक घर से ऊंट की चोरी की थी और ऊंट के स्वामी और आस पास के लोगों ने उसे चोरी करते पकड़ लिया था। उसने सोचा भी नहीं था कि पकड़ा जाएगा। भागने का बहुत प्रयास किया किन्तु जितना भागने का प्रयास करता उतना ही पीटा जाता। अंततः उसे न्यायधीश के पास ले जाया गया। न्यायधीश ने चोरी सिद्ध हो जाने के पश्चात क़ानून के अनुसार चोर के हाथ काटने का आदेश दिया। जब जल्लाद हाथ काटने पहुंचा तो चोर ने गुहार लगाई कि मुझे मेरी मां से मिलने दिया जाए। न्यायधीश के आदेश पर चोर की मां को बुलाया गया। चोर ने कहाः यदि दंडित करना है तो मेरी मां को दंडित किया जाए क्योंकि मां ने उस समय मुझे नहीं रोका जब मैं छोटी छोटी चोरियां किया करता था। उसने मुझे अंडे चोर से एक माहिर चोर बनाया है। न्यायधीश चुप रहा। मां ने अपने अपराध को स्वीकार किया। न्यायधीश का मन उस बेचारे चोर के लिए पसीज गया और उसने उसे क्षमा कर दिया तथा चोर की मां को जेल में डालने का आदेश दिया।

सूरए बक़रह की अटटठारहवीं आयत की तफसीर

सूरए बक़रह की अटटठारहवीं आयत हैः
صُمٌّ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَرْجِعُونَ
इस आयत का अनुवाद इस प्रकार हैः

वे लोग अर्थात मिथ्याचारी सत्य सुनने से बहरे, सत्य बोलने से गूंगे तथा सत्य देखने से अंधे हैं अतः वे अपने कुफ़्र को छोड़कर सत्य की ओर आने वाले नहीं हैं। यद्यपि मिथ्याचारी भी अन्य लोगों की भांति आंख, कान और ज़बान रखता है परन्तु उसकी आंख सत्य तथा वास्तविकता को देखने के लिए उसके कान सत्य बात को सुनने के लिए और उसकी ज़बान वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होती इसीलिए पवित्र क़ुरआन में मिथ्याचारियों को ऐसे लोगों के समान बताया गया है जिनके पास मानों शरीर के यह अंग हैं ही नहीं। इस आयत के अतिरिक्त दूसरी अन्य आयतों में भी मिथ्याचारियों के बारे में "ला यशअरून" "ला यालमून" तथा "ला युबसिरून" जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है।
भेदभाव तथा अंधे अनुसरण का परिणाम, वास्तविक्ताओं को न समझने तथा हृदय के अंधकार के रूप में सामने आता है। मिथ्याचारी का आंतरिक कुफ़्र, उसकी आंख, कान तथा ज़बान को इस प्रकार प्रभावित करता है और वास्तविकताओं को छिपाता है कि काफ़िरों की ही भांति वह भी वास्तविक्ताओं को उल्टा देखता है और सत्य तथा असत्य में अंतर की शक्ति खो बैठता है।
पिछली आयत में कहा गया है कि ईमान के प्रकाश की समाप्ति के पश्चात कुफ़्र का अंधकार इस प्रकार उसके असितत्व को अपने घेरे में ले लेता है कि उसमें देखने की शक्ति ही नहीं रह जाती परन्तु यह आयत कहती है कि वह न केवल देखने की शक्ति बल्कि वास्तविकता और सत्य को सुनने और कहने की शक्ति भी खो देता है और अंधकारमय घाटी में चलने का परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तथा इस मार्ग से वापसी एवं मोक्ष की कोई भी संभावना नहीं है।

सूरए बक़रह की सत्रहवीं आयत की तफसीर

सूरए बक़रह की सत्रहवीं आयत हैः
مَثَلُهُمْ كَمَثَلِ الَّذِي اسْتَوْقَدَ نَارًا فَلَمَّا أَضَاءَتْ مَا حَوْلَهُ ذَهَبَ اللَّهُ بِنُورِهِمْ وَتَرَكَهُمْ فِي ظُلُمَاتٍ لَا يُبْصِرُونَ
इस आयत का अनुवाद इस प्रकार हैः

इन मिथ्याचारियों का उदाहरण उस व्यक्ति की भांति है जिसने आग भड़काई और जब आग ने उसके चारों ओर प्रकाश फैला दिया तो ईश्वर ने उस प्रकाश को ले लिया तथा उसे ऐसे अंधकार में छोड़ दिया जहां उसे कुछ सुझाई नहीं देता।
इससे पहले की आयतों में मिथ्याचारियों के व्यवहार तथा उनकी बातचीत का उल्लेख किया गया था। इस आयत में उनकी उपमा एक ऐसे व्यक्ति से देते हुए, जो अंधकारमय मरूस्थल में आग जलाता है, कहा गया है कि मिथ्याचारियों के ईमान का प्रकाश भी आग के प्रकाश की भांति कमज़ोर और अस्थिर है जो धुएं, राख और गर्मी के साथ ही समाप्त हो जाता है। यह लोग ईमान का प्रकाश दिखाने का प्रयास तो करते हैं किंतु इनके भीतर कुफ़्र की आग निहित होती है।
यह कमज़ोर प्रकाश भी उस पवित्र प्रवृत्ति के कारण है जो ईश्वर ने उनके अस्तित्व में रखी है परन्तु उनकी हठधर्मी और भेदभाव के कारण यह प्रकाश कमज़ोर होता चला जाता है। यहां तक कि अत्याचार तथा अज्ञान के पर्दे उसे भी छिपा देते हैं तथा कुफ़्र का अंधकार उनके सम्पूर्ण अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेता है।
मिथ्याचारी निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या का मार्ग अपनाकर यह सोचते हैं कि वे काफ़िरों को भी, जो नरक वाले हैं प्रसन्न कर लेंगे और स्वर्ग वाले मोमिनों को भी। वे सोचते हैं कि काफ़िरों के संसार से भी लाभ उठाएंगे और मोमिनों के परलोक से भी। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन ने उन्हें ऐसे व्यक्ति की उपमा दी है जो आग जलाकर नार और नूर अर्थात अग्नि तथा प्रकाश को इकटठठा करके दोनों से लाभ उठाना चाहता है किंतु जीवन का मैदान उस अंधकारमय मरूस्थल की भांति है जिसे पार करने तथा लक्ष्य तक कुशलतापूर्वक पहुंचने के लिए तीव्र और स्थिर प्रकाश की आवश्यकता होती है। कारण यह है कि घटनाओं की आंधी हर कमज़ोर ज्योति को बुझा कर मनुष्य को अंधकार में छोड़ देती है।
इस आयत से हमने जो बातें सीखी हैं वे यह हैं-
मिथ्याचारी का प्रकाश, आग के प्रकाश की भांति कमज़ोर और अस्थाई होता है।
मिथ्याचारी का अस्तित्व उपद्रव तथा उत्तेजना भड़काने का कारण बनता है।
मिथ्याचारी प्रकाश तक पहुंचने के लिए आग का प्रयोग करता है जिसमें मात्र राख, आंच और धुआं होता है।
मिथ्याचारी का भविष्य अंधकारमय तथा अनिश्चित है तथा उसके मोक्ष की कोई आशा नहीं है।
मिथ्याचार, वह भी ईश्वर के लिए बुद्धिमानी एवं चतुराई की निशानी नहीं है बल्कि यह विनशा का कारण बनता है।

शनिवार, 17 जुलाई 2010

वीरता व भाईचारे के प्रतीक हज़रत अब्बास


सलाम हो अली के सुपुत्र अबल फ़ज़्लिल अब्बास पर जिन्होंने सत्य के ध्वज को ऊंचा रखने के मार्ग में अपने प्राण की आहूति दी और इतिहास में अमर हो गए। सलाम हो उस पर जो सद्गुण व उदारता का सोता था। उसने वीरता व बलिदान को परिभाषित किया और इन सद्गुणों का व्यवहारिक रूप में उत्कृष्ठ नमूना पेश किया। इस महान व्यक्तित्व के शुभ जन्म दिवस की हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। वर्ष 26 हिजरी क़मरी में चार शाबान को मदीना नगर में एक ऐसे शिशु ने इस संसार में क़दम रखा जिसका भव्य जीवन व शहादत मानव इतिहास के महाकाव्य में अमर हो गया। जिस समय इस शिशु के शुभ जन्म की सूचना हज़रत अली अलैहिस्सलाम को दी गई वे तुरंत घर की ओर बढ़े और शिशु को अपनी गोद में ले लिया, चेहरे को चूमा और कानों में आत्मा को ताज़गी प्रधान करने वाली अज़ान कही तथा उसके शुभ जन्म के उपलक्ष्य में वंचितों को दान दक्षिणा दी। पिता ने इस बच्चे के प्रतापी चेहरे में ईश्वर को पसंद विशेषताएं विशेष रूप से वीरता की झलक देखी इसलिए उसका नाम अब्बास रखा। यह बच्चा बड़ा होकर बुराइयों से संघर्ष में मशहूर हुआ और अत्याचार के सामने कदापि नहीं झुका। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने सुपुत्र हज़रत अब्बास के पालन पोषण पर पूरा ध्यान रखते थे और इस बात का व्यापक प्रयास किया कि उनके मन में ईश्वर पर विश्वास और मानवीय मूल्यों के पालन की भावना बैठ जाए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का अपने अन्य पुत्रों की भांति हज़रत अब्बास के साथ बहुत प्रेमपूर्ण व मैत्रीपूर्ण व्यवहार था। वे कठिनाइयों के समय उन्हें ढारस बंधाते और अपने सुपुत्र के पवित्र मन में ज्ञान की ज्योति जलाते थे। इसलिए इस हाशमी युवा का व्यक्तित्व एक आकर्षक, सदाचारी, विद्वान, वीर, और दानी व्यक्ति के रूप में सामने आया और उनके व्यक्तित्व में उनके पिता की चारित्रिक विशेषताएं प्रतिबिंबित हुईं। हज़रत अब्बास अपने सदाचारी पिता की छत्रछाया में जो इस धरती पर ईश्वर की ओर से उसके अस्तित्व का तर्क थे, पले बढ़े और उन्होंने उनसे ज्ञान व अंतर्दृष्टि की बातें सीखीं ताकि आने वाले समय में सदाचारिता का आदर्श बनें। हज़रत अब्बास ने पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैन अलैहेमस्सलाम से जो जन्नत के युवाओं के सरदार हैं,सदाचारिता व मानवीय मूल्य सीखे। विशेष रूप से हज़रत अब्बास इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहे और उनके व्यक्तित्व का उन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि हज़रत अब्बास के विचार व स्वाभाव लगभग इमाम हुसैन के जैसे थे। इमाम हुसैन भी जो अपने भाई अब्बास की खरी श्रृद्धा व बलिदान की भावना को भलिभांति समझ चुके थे उन्हें अपने निकटवर्तियों में वरीयता देते और उन्हें बहुत मानते थे।इस प्रकार हज़रत अब्बास पैग़म्बरे इस्लाम के नातियों की संगत में रह कर आध्यात्मिक विकास की उस चोटी पर पहुंचे कि स्वंय उनकी भी महान सुधारकों में गिना जाने लगा। वे अपने जैसे मनुष्य की मुक्त के लिए अदम्य साहस व बलिदान द्वारा उन लोगों की पंक्ति में शामिल हो गए जिन्होंने इतिहास की धारा को बदल दिया। हज़रत अब्बास पर ईश्वर की विशेष कृपा यह थी कि वे उदारता व सुचरित्रता के साथ सुंदर व आकर्षक भी थे। उनका चेहरा खिला रहता और उनकी काठी लंबी और शरीर ठोस था जिससे वीरता झलकती थी। इतिहासकारों ने उन्हें बहुत सुंदर व आकर्षक बताया है। उन्हें सुंदर व प्रतापी चेहरे के कारण हाशिम के चांद की उपाधि दी गई।इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने जिन्हें उपासको सरदार कहा जाता है, हज़रत अब्बास के बारे में फ़रमाया हैः ईश्वर हज़रत अब्बास पर कृपा करे उन्होंने त्याग व बलिदान दिया और परीक्षा में सफल हुए। स्वंय पर भाई पर न्योछावर कर दिया यहां तक कि उनके हाथ कट गए, ईश्वर के निकट वह स्थान है कि प्रलय के दिन सभी शहीद उनके स्थान की प्राप्ति की कामना करेंगे।इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने भी हज़रत अब्बास की प्रशंसा करते थे और आशूर के दिन उनके गौरवपूर्ण व वीरता भरे क़दम पर श्रृद्धांजलि अर्पित करते थे। उस अदम्य प्रतिरोध की इन शब्दों में उल्लेख किया हैः हमारे चाचा अब्बास बिन अली के पास गहरी अंतर्दृष्टि व समझदारी तथा ठोस ईमान था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ जेहाद किया और परीक्षा में सफल हुए तथा संसार से शहीद होकर चले गए। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हज़रत अब्बास के स्थान की इस प्रकार प्रशंसा की हैः हे अमीरुल मोमेनीन के सुपुत्र आप पर सुबह शाम ईश्वर और उसके समीपवर्ती फ़रिश्तों की कृपा तथा उसके दूतों, नेक बंदों व समस्त शहीदों तथा सत्य के मार्ग पर चलने वालों का सलाम हो। इतिहास में ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं जिन्हें उनके एक या कई महत्वपूर्ण क़दम के कारण आदर्श माना गया है। हज़रत अब्बास वीरता व भाईचारे के प्रतीक हैं। पवित्र क़ुरआन में मोमिनों के बीच उनके ईमानी बंधुत्व की ओर संकेत किया गया है। क़ुरआन की दृष्टि में एक आदर्श समाज के गठन के लिए सबसे उपयोगी मार्ग ईमानी बंधुत्व है जिसके कारण वे एक दूसरे के साथ होते हैं और एक ही दिशा में क़दम बढ़ाते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन हैः मोमिन आपस में एक दूसरे के भाई समान हैं और उनकी दियत अर्थात किसी का प्राण लेने या उसे शारिरिक हानि पहुंचाने के बदले में हर्जाना एक समान है और वे शत्रु के सामने एक समूह की भांति होते हैं।पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में भाईचारा, ईमान और उस प्रेम पर आधारित होता है जो ईश्वर मोमिनों के हृदय में डाल देता है। इसलिए कठिनाइयों में एक दूसरे की सहायता करना ईमान वालों का एक दूसरे के प्रति सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है। पैग़म्बरे इस्लाम ने मोमिनों को एक शरीर के अंग की संज्ञा दी है कि यदि एक अंग में पीड़ा हो तो दूसरे अंग चैन से नहीं होंगे और यदि एक अंग में रोग हो तो पूरा शरीर ज्वर में तपने लगता है।हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम के जीवन पर एक संक्षिप्त सी दृष्टि उन्हें भाईचारे का प्रतीक सिद्ध करती है। उन्होंने अपने बचपन से अपने भाइयों के प्रति उन कर्तव्यों को सर्वश्रेष्ठ ढंग से निभाया जिनका क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम ने उल्लेख किया है। इतिहास में है कि एक दिन हज़रत बचपन में इस प्रकार हाथ में पानी भरा कूज़ा लिए थे कि पानी उनके शरीर पर छलक कर गिर रहा था। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने जब यह दृष्य देखा तो पूछा कि ये पानी किसके लिए ले जा रहे हो? हज़रत अब्बास ने कहा कि इस बार अपने भाई हुसैन के लिए ले जा रहा हूं। हज़रत अली एक क्षण सोच कर रोने लगे और हज़रत अब्बास को संबोधित करते हुए कहाः तुम कर्बला में भी यही काम मेरे बेटे के लिए करोगे जबकि प्यासे होगे और प्यासे ही शहीद हो जाओगे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम सदैव भाई के स्थान का सम्मान करते थे। आशूर की रात जब शत्रु के सिपाही इमाम हुसैन और उनके साथियों से युद्ध के लिए तैयार हो गए तो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हज़रत अब्बास से कहाः प्रिय भाई! मेरा प्राण तुम पर न्योछावर हो जाए! घोड़े पर सवार होकर इस अत्याचारी गुट के पास जाओ और पूछो कि यह हमसे क्या चाहते हैं?आशूर के दिन हज़रत अब्बास फ़ुरात नदी के किनारे पहुंचे ताकि इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों के लिए पानी ले जाएं। किन्तु जब पलटने लगे तो शत्रुओं ने उन्हें चारो ओर से घेर लिया और उन पर आक्रमण कर दिया। उनके हाथ कट गए और वे घोड़े से ज़मीन पर आ गए। उस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहाः अब मेरी पीठ टूट गई और आशा समाप्त हो गई। इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के मत में बलिदान, त्याग व वीरता को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कठिनाइयों में त्याग व बलिदान को सर्वश्रेष्ठ नैतिक गुण की संज्ञा दी है। एक स्थान पर त्याग व बलिदान को सर्वश्रेष्ठ उपासना की संज्ञा दी गई है और त्याग व बलिदान को समस्त नैतिक गुणों का उद्देश्य बताया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम हारिस हमेदानी के नाम अपने पत्र में फ़रमाते हैं कि सबसे बड़ा मोमिन अन्य मोमिनों की तुलना में अपने व अपने परिजनों के प्राण व संपत्ति का अधिक परित्याग करता है। हज़रत अली अलैहिस्सला के इस कथन का स्पष्ट उदाहरण हज़रत अब्बास का जीवन है। वे उन श्रेष्ठ मोमिनों में हैं जिन्होंने अंतर्दृष्टि व परिज्ञान के साथ धर्म व इस्लाम के महालक्ष्यों के लिए प्राण की बाज़ी लगा कर परिपूर्णता का मार्ग तय करते हुए शहादत जैसे उच्च लक्ष्य तक पहुंचे।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम का जन्मदिन

आज शाम से ही घर मैं सब खुश है ! कल इस्लाम के रहबर , सभी मुसलमाओं के खलीफा, पैगम्बर इ इस्लाम हजरत मुहम्मद (स०) के उत्तराधिकारी, हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम का जन्मदिन है। आप आदरणीय पैगम्बर इ इस्लाम हजरत मुहम्मद (स0) के दामाद भी थे .आप का जन्म रजब मास की 13वी तारीख को हिजरत से 23वर्ष पूर्व मक्का शहर के विश्व विख्यात व अति पवित्र स्थान काबे मे हुआ था।कल ख़ुशी का दिन है, हम सब अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस्सलाम, की बताई बातों का ज़िक्र करेंगे, और उनका अमन का पैगाम, सदाचार और इंसानियत का पैगाम अपने बच्चों तक पहुंचाएंगे जिस से वोह एक बेहतरीन इंसान बन सकें. कल घर मैं खीर और सेवएं की बहार आएगी, पडोसी और रिश्तेदार आएंगे, मुहब्बत और भाईचारा बढेगा.
हज़रतअली पैगम्बर की देखरेख मे प्रशिक्षित हुए। हज़रतअली ने अपने एक प्रवचन में कहा कि मैं पैगम्बर के पीछे पीछे इस तरह चलता था जैसे ऊँटनी का बच्चा अपनी माँ के पीछे चलता है। पैगम्बर (स) प्रत्येक दिन मुझे एक सद्व्यवहार सिखाते व उसका अनुसरन करने को कहते थे। जब आदरणीय मुहम्मद (स0) ने अपने पैगमबर होने की घोषणा की तो हज़रतअली वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने आपके पैगम्बर होने को स्वीकार किया तथा आप पर ईमान लाए। हज़रत पैगम्बर ने अपने स्वर्गवास से तीन मास पूर्व हज से लौटते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अल्लाह के आदेश से सन् 10 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की 18वी तिथि को हज़रतअली को अपना
उत्तराधिकारी घोषित किया। अपने पाँच वर्षीय शासन काल मे उन्होने अधिकारिक क्षेत्र मे सुधार करके जनता को समान अधिकार प्रदान किये। शासन की ओर से दी जाने वाली धनराशि के वितरण मे व्याप्त भेद भाव को समाप्त करके समानता को स्थापित किया। उन्होंने कहा कि निर्बल व्यक्ति मेरे समीप हज़रत हैं मैं उनको उनके अधिकार दिलाऊँगा।व अत्याचारी व्यक्ति मेरे सम्मुख नीच है. हज़रत अली (अ) ने सिखाया : मुसलमान तुम्हारा धर्म भाई है और दुसरे इंसान तुम्हारे इंसानियत के रिश्ते से भाई हैं। दोनों का तुमपर अधिकार है. सभी इंसान एक दुसरे के मददगार हैं. हज़रतअली (अ की यह कविता मुझे हमेशा से पसंद रही है...
सीने में तेरे तेरा हर इक दर्द छुपा है
और ढूंढ कि हर मर्ज़ की तुझ में ही दवा है
तू समझा कि तू कुछ भी नहीं कुछ भी नहीं है
तू दिल में ज़रा झांक कि आलम तो यहां है
तू देख कि तुझ में भी किताब ऐसी नेहां है

हर लफ़्ज़ से जिस के तेरा ह्हर राज़ अयां है
ढूंढे है ज़माने में जो तुझ में ही नहीं है
बेदारी जो तुझ में है,तुझे इल्म कहां है
शेफा कज्गओंवी का यह कलाम हज़रात अली (अ) के किरदार को पेश करता है॥
""मुफ़लिस ओ नादार को गंदुम की दे कर बोरियां
ख़ुद किया फ़ाक़ा अली ,ऐसी केफालत को सलाम ""
"ख़तीब ए वक़्त भी, मुश्किल कुशा भी रहनुमा भी हैं
हर इक हाजत रवा करने मदद को आप आए हैं "
प्रोफेसर Nicholson ने अपनी पुस्तक " History of अरब" मैं टिप्पणी की "अली एक बहादुर योद्धा, एक बुद्धिमान परामर्शदाता, एक सच्चे दोस्त और उदार शक्सियत का मालिक था । यह वोह अली (अ) है जिसकी ओलादों ने कर्बला मैं शहादत दे के इस्लाम को दहशतगर्दों से बचाया और बताया इस्लाम नाम है सब्र का, हक के लिए जान को कुर्बान करने का, किसी की जान लेना, किसी को बे इज्ज़त करने का नाम इस्लाम नहीं है। इमाम हुसैन (अ०) जो की हज़रात अली(अ) के पुत्र थे , उनको उनके ७२ साथिओं ( दोस्त और रिश्तेदार) के साथ , यजीद ने ,जो की एक ज़ालिम बादशाह था, ज़ुल्म के साथ कर्बला मैं शहीद कर दिया। इमाम हुसैन ने यह भी इजाज़त मांगी याज़ेद की फ़ौज से की "मुझको हिंदुस्तान जाने दो जहां इंसान बसते हैं." लेकिन इजाज़त ना मिली और भूखा प्यासा शहीद कर दिया जालिमों ने.
इंसानियत का पैग़ाम देने वाले इमाम अली (अ.स) की विलादत सभी को मुबारक हो.

हज़रत अली (अ) ने हमको सीखाया: जब कोई कुछ कहे तो यह ना देखो कौन (किस धर्म का) कह रहा है, यह देखो की क्या कह रहा है.