बुधवार, 24 मार्च 2010

मक़सदे ख़िलक़त

हम कहाँ से आये है? हमारे आने का मक़सद क्या है? हम कहाँ जा रहे हैं? हमारा अंजाम क्या होगा? हमारी सआदत व ख़ुश बख़्ती किय चीज़ में है? उसे किस तरह हासिल किया जा सकता है?

यह और इस तरह के दीगर अहम और बुनियादी सवालात हैं जो हमेशा से इंसान के दिल व दिमाग़ को मशग़ूल किये हुए हैं। इन सवालात का सही जवाब मालूम कर लेना इंसानी ज़िन्दगी को बेहतरीन और कामयाब ज़िन्दगी बना सकता है और उस में नाकामी उसे और उस की ज़िन्दगी को नीस्ती व नाबूदी की तरफ़ खींच सकती है। मक़सदे ख़िलक़त को जान लेना एक तरफ़ से इंसान की हक़ीक़त तलब रूह की तसकीन के सामान फ़राहम कर सकता है तो दूसरी तरफ़ से उस के हाल और मुस्तक़बिल को आपस में जोड़ सकता है।

इस्लामी नुक़्त ए नज़र से ख़िलक़ते कायनात बिला वजह और बग़ैर किसी मक़सद के नही है बल्कि कायनात की हर शय एक ख़ास ग़रज़ और मक़सद के तहत ख़ल्क़ हुई है।

बेशक ज़मीन व आसमान की ख़िलक़त, लैल न नहार की आमद व रफ़्त में साहिबाने अक़्ल के लिये क़ुदरत की निशानियां हैं। जो लोग उठते बैठते, लेटते ख़ुदा को याद करते हैं और आसमान व ज़मीन की तख़लीक़ में ग़ौर व फ़िक्र करते हैं कि ख़ुदाया, तू ने यह सब बेकार पैदा नही किया, तू पाक व बे नियाज़ है, हमे अज़ाबे जहन्नम से महफ़ूज़ फ़रमा।

(सूर ए आले इमरान आयत 190, 191)

उन्ही मख़लूक़ात में से ख़ुदा की एक बरतर और अशरफ़ मख़लूक़ जिसे इंसान कहा जाता है। परवरदिगार ने उसे अबस और बिला वजह ख़ल्क़ नही किया है बल्कि उसे अपनी ख़िलक़त का शाहकार क़रार दिया है और उस की ख़िलक़त पर अपने आप को अहसनुल ख़ालेक़ीन कहा है। इसी लिये इरशाद फ़रमाता है:

क्या तुम्हारा ख़्याल है कि हम ने तुम्हे बेकार पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलटा कर नही लाये जाओगे। (सूर ए मोमिनून आयत 115)

और एक दूसरे मक़ाम पर इरशाद होता है:

क्या इंसान का ख़्याल यह है कि उसे इसी तरह आज़ाद छोड़ दिया जायेगा।

(सूर ए क़यामत आयत 37)

यह आयात हमें चंद अहम नुकात की तरफ़ मुतवज्जेह कराती हैं:

1. इंसान की ख़िलक़त बेला वजह व अबस नही है बल्कि उस की ख़िलक़त का एक मक़सद है।

2. इंसान को ख़ल्क़ कर के उसे उस के हाल पर छोड़ नही दिया गया है।

3. ख़िलक़ते इंसानी का आख़िरी मक़सद उस का बारगाहे ख़ुदा वंदी में पलटना है।

ख़ालिक़े कायनात ने इंसानों की ख़िलक़त के कुछ दीगर असरार व रुमूज़ और अहदाफ़ व मक़ासिद को अपनी किताब क़ुरआने मजीद में बयान फ़रमाया है मिन जुमला:

1. इल्म व मारेफ़त

परवरदिगारे आलम ने इंसान की ख़िलक़त का एक मक़सद इंसानों का परवरदिगार की क़ुदरते मुतलक़ा की मारेफ़त हासिल करना क़राक दिया है इरशाद फ़रमाया:

अल्लाह वही है जिस ने सात आसमानों को पैदा किया है और ज़मीनों में भी वैसी ही ज़मीनें बनाई हैं उस के अहकाम उन के दरमियान नाज़िल होते हैं ता कि तुम्हे यह मालूम हो जाये कि वह हर शय पर क़ादिर है और उस का इल्म तमाम अशया का इहाता किये हुए हैं। (सूर ए तलाक़ आयत 12)

2. इम्तेहान आज़माइश

ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:

उस ने मौत व हयात को इस लिये पैदा किया है ता कि तुम्हारी आज़माइश करे कि तुम में हुस्ने अमल के ऐतेबार से सब से बेहतर कौन है।

इम्तेहान और आज़माइशे इलाही से मुराद पोशीदा असरार व रुमूज़ को मालूम करना नही है बल्कि इस से मुराद इंसानों की इस्तेदाद व सलाहियत को रुश्द व तरक़्क़ी देने के मवाक़े फ़राहम करना है और इंसानों की आज़माइश व इम्तेहान यह है कि वह अच्छाई व बुराई के रास्ते को मुन्तख़ब करने के तमाम रास्तों को इंसानों के सामने रख दे का कि वह उन की मदद से अपनी इस्तेदाद व सलाहियत को रुश्द व तरक़्क़ी दे और सही रास्ते का इंतेख़ाब करे।

3. इबादत

परवरदिगारे आलम ने इस सिलसिले में इरशाद फ़रमाया:

और मैं ने जिन्नात और इंसानों को सिर्फ़ अपनी इबादत के लिये पैदा किया है।

(सूर ए ज़ारियात आयत 56)

इस आयत की रौशनी में इंसान की ख़िलक़त का अस्ल मक़सद इबादत व बंदगी ए परवरदिगार है। इबादत व बंदगी ए परवर दिगार को क्यों मक़सदे ख़िलक़ते इंसान क़रार दिया गया है? इस सवाल का जवाब यह है:

1. क़ुरआनी नुक़्त ए नज़र से हर मुसबत अमल जो परवर दिगार से क़रीब होने की नीयत से अंजाम दिया जाये वह इबादत है। इबादत सिर्फ़ चंद ख़ास मनासिक व आमाल ही नही हैं बल्कि उन के साथ साथ हर इल्मी, इक़्तेसादी आमाल वग़ैरह भी जो लील्लाहियत की बुनियाद पर अंजाम दिये जायें वह सब के सब इबादत हैं और इंसान अपने तमाम अहवाल व हालात यहाँ तक कि खाने पीने, सोने जागने और ज़िन्दगी व मौत में भी ख़ुदाई हो सकता है और उस से तक़र्रुब हासिल कर सकता है।

आप कह दीजिये कि मेरा नमाज़, मेरी इबादतें, मेरी ज़िन्दगी और मेरी मौत सब अल्लाह के लिये है, जो आलमीन का पालने वाला है।

अलबत्ता इस बात को हमेशा याद रखना चाहिये कि इबादत अपने ख़ास और इस्तेलाही मअना में दीन में एक बहुत अहम और ख़ास मक़ाम व मंज़िलत की हामिल है।

2. इस सिलसिले में फ़ससफ़ ए इबादत की तरफ़ तवज्जो भी निहायत ज़रुरी और अहम चीज़ है। चुनांचे हज़रत अली अलैहिस सलाम इरशाद फ़रमाते हैं कि परवरदिगार ने मख़लूक़ात को ख़ल्क़ किया जब कि वह उन की इताअत से बेनियाज़ और उन की ना फ़रमानी से अम्न व अमान में था। इस लिये कि न ही गुनहगारों की ना फ़रमानी उसे कोई नुक़सान पहुचा सकता है और न ही इताअत गुज़ारों की इताअत व फ़रमा बरदारी उसे कोई फ़ायदा पहुचा सकती है।

इंसान की दुनिया और आख़िरत में इबादत के बहुत से मुसबत असरात और हिकमतें हैं मिन जुमला:

1. एक फ़ितरी ज़रुरत

2. ख़ुद शिनासी का एक रास्ता

3. माद्दियत व माद्दा परस्ती से निजात

4. यक़ीन हासिल करना

5. रुहे इंसान की बदन पर कामयाबी

6. एहसासे सलामती और इतमीनान

7. क़ुवा ए नफ़सानी पर क़ाबू

8. क़ुरबते ख़ुदा का ज़रिया

9. अख़लाक़ व ईमान का हामी

4.रहमते इलाही

ख़ालिक़े क़ायनात ने इरशाद फ़रमाया:

और अगर आप का परवरदिगार चाह लेता तो सारे इंसानों को एक क़ौम बना देता। (लेकिन वह जब्र नही करता।) लिहाज़ा यह हमेशा मुख़्तलिफ़ ही रहेगें। अलावा उन के जिन पर ख़ुदा ने रहम कर दिया और इसी लिये उन्हे पैदा किया है।

एक अहम नुक्ता

मज़कूरा बाला आयात में ग़ौर व फ़िक्र से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि उन अहदाफ़ व मक़ासिद में कोई इख़्तिलाफ़ और तज़ाद नही है। इस लिये कि उन में से बाज़ मुकद्देमाती और इब्तेदाई अहदाफ़ है तो कुछ दरमियानी और कुछ आख़िरी हदफ़ व नतीजा हैं।

लिहाज़ इन आयात की रौशनी में ख़िलक़ते इंसान का मक़सद, तजल्ली ए रहमते परवरदिगार और इंसान को दायमी कमाल व सआदत की राह में क़रार देना है जो इख़्तेयारी तौर पर सही और बरतर रास्ते को इख़्तियार करने और राहे उबूदियते परवर दिगार को तय करने से हासिल हो सकता है।

अल्लाह हुम्मा वफ़्फ़िक़ना लिमा तुहिब्बो व तरज़ा, वजअल अवाक़िबा उमूरिना ख़ैरा।

सोमवार, 15 मार्च 2010

ज़माने की शिकायत

मुफ़ज़्ज़ल बिन क़ैस ज़िन्दगी की दुशवारी से दो चार थे और फ़क्र व तंगदस्ती कर्ज़ और ज़िन्दगी के अख़राजात से बहुत परेशान थ। एक दिन हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अपनी बेचारगी और परेशानी बयान की, कि इतना मुझ पर कर्ज़ है और मैं नहीं जानता की किस तरह अदा करूँ, ख़र्च है मगर आमदनी का कोई वसीला नहीं। मजबूर हो चुका हूँ क्या करूं कुछ समझ मे नहीं आता, मैं हर ख़ुले हुए दरवाज़े पर गया मगर मेरे जाते ही वो दरवाज़ा बन्द हो गया।

और आख़िर में उन्होने इमाम से दरख़ास्त की कि उसके लिए दुवा फ़रमाएं और ख़ुदा वन्दे आलम से चाहें कि उसकी मुश्किल आसान हो। इमाम ने एक कनीज़ को हुक्म दिया (जो कि वहाँ मौजूद थी) जाओ और वो अशरफ़ी की थैली ले आओ जो कि मंसूर ने मेरे लिए भेजी है। वो कनीज़ गई और फ़ौरन अशरफ़ियों की थैली लेकर हाज़िर हुई। इमाम ने मुफ़ज़्ज़ल से फ़रमाया कि इस थैली में चार सौ दीनार हैं जो कि तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए कुछ दिन का सहारा बन सकते हैं। मुफ़ज़्ज़ल ने कहा, हुज़ूर मेरी ये ख़्वाहिश न थी, मैं तो सिर्फ़ दुआ का तलबगार था।

इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया, बहुत अच्छा मैं दुआ भी करूंगा, लेकिन मैं तुझ से एक बात कहूँ कि तुम हरगिज़ अपनी सख़्तियाँ और परेशानियाँ लोगों पर ज़ाहिर न करो क्योकि उसका पहला असर ये होगा कि तुम ज़मीन पर गिर चुके हो और ज़माने के मुकाबले में शिकस्त खा चुके हो और तुम लोगों की नज़रों से गिर जाओगे और तुम्हारी शख़्सियत व वक़ार लोगों के दरमियान से ख़त्म हो जाएगा।

आशिक़े रसूले ख़ुदा (स.)

एक शख़्स हज़रत रसूले ख़ुदा से बेहद मोहब्बत करता था, और तेल (रौग़ने ज़ैतून) बेचने का काम किया करता था। उस के बारे में यह ख़बर मशहूर थी कि वो सिदक़े दिल से रसूले ख़ुदा (.) से बेपनाह इश्क मोहब्बत करता था और आँ हज़रत () को बहुत चाहता था, अगर एक दिन भी आँ हज़रत को नहीं देख़ता तो बेताब हो जाता था और जब भी किसी काम के सिलसिले में घर से बाहर जाता था तो पहले मस्जिद में या फ़िर रसूले ख़ुदा के घर या फ़िर जहां भी रसूले ख़ुदा होते थे वहां पहुंच जाता था और आँ हज़रत की ज़ियारत से मुशर्रफ़ होता था और फ़िर अपने काम के लिए निकलता था, जब कभी पैग़म्बर (.) के इर्द गिर्द लोग होते और वो लोगों के पीछे इस तरह होता कि पैग़म्बर को देख पा रहा हो तो लोगों के पीछे से गर्दन ऊँची करता कि एक बार ही सही जमाल पैग़म्बर पर निगाह डाल सके।

एक दिन हज़रत रसूले ख़ुदा (.) उसकी तरफ़ मुतवज्जे हुए कि वो शख़्स लोगों के पीछे से उनको देखने की कोशिश कर रहा है। पैग़म्बर (.) भी बढ़कर उसके मुक़ाबिल गए ताकि वो शख़्स आसानी के साथ उनको देख़ सके। वो शख़्स उस दिन पैग़म्बरे (.) को देखने के बाद अपने काम के लिए गया, थोड़ी देर हुई थी कि वापस आया।

जैसे ही रसूले ख़ुदा (.) की दूसरी बार, उस दिन उस पर नज़र पड़ी हाथ के इशारे से उसको करीब बुलाया। वो रसूले ख़ुदा (.) के पास आकर बैठ गया। हज़रत रसूले ख़ुदा (.) ने फ़रमाया, आज की तेरी रविश दूसरे और दिनों से क्यों मुख़्तलिफ़ है, तू पहले एक मर्तबा आकर अपने काम के लिए चला जाता था लेकिन आज जाने के बाद फ़िर दोबारा गया आख़िर क्यों?

उसने कहा कि रसूले ख़ुदा (.) हकीकत यह है कि आज मेरे दिल में आप की मोहब्बत इतनी ज़्यादा हो गई है कि मैं आज अपने काम के लिए जा सका, मजबूर होकर वापस गया।

रसूले ख़ुदा (.) ने उसके लिए दुआए ख़ैर की, वो उस दिन अपने घर गया लेकिन फ़िर दोबारा दिख़ाई दिया। चन्द दिन गुज़र गए लेकिन उसकी कोई ख़बर मिल सकी। पैगम्बरे इस्लाम (.) ने अपने असहाब से उसके बारे में पूछा तो सबने यही कहा कि एक मुद्दत से हम भी उसको नहीं देख रहे हैं। आँ हज़रत () ने इरादा किया कि जाकर उसकी ख़बर लें, और मालूम करें कि उस पर क्या परेशानी नाज़िल हुई है। आप आपने चन्द दोस्त और असहाब के साथ रोग़ने ज़ैतून के बाज़ार की तरफ़ तशरीफ़ ले गए, जैसे ही उस शख़्स की दुकान पर पहुंचे देखा। दुकान बन्द है और कोई नही है। उसके हमसाये से मालूम किया तो उसने कहा, रसूले ख़ुदा (.) उसका कुछ दिन पहले इन्तिकाल हो गया है। रसूल ख़ुदा (.) वो एक अमानतदार और बहुत सच्चा और बहुत अच्छा इन्सान था लेकिन उसमें एक बुरी ख़सलत थी।

रसूल (.) ने फ़रमाया, वो कौन सी बुरी ख़सलत थी ?

उसने कहा, वो बाज़ बुरे कामों से परहेज़ नहीं करता था

मसलन औरतों की फ़िक्र में रहता था।

रसूले ख़ुदा (.) ने फ़रमाया, ख़ुदा उस को बख़्श दे और उसको अपनी रहमत में शामिल करे। वो मुझे इतना ज़्यादा चाहता था और मुझसे मोहब्बत करता था अगर वो ग़ुलाम और कनीज़ फ़रोशी भी करता तो ख़ुदा उस को बख़्श देता।

हातिम का बेटा

तुलू ए इस्लाम और इस्लामी हुकूमत की तशकील पाने से पहले अरबों में कबीले की सरदारी की रस्म जारी थी। अरब वाले अपने सरदारों की इताअत और फ़र्माबरदारी करते थे और कभी-कभी उनको टैक्स वग़ैरा भी देते थे। अरब कबीलों के मुख़्तलिफ सरदारों में एक सरदार हातिम भी था और जो अपनी सखा़वत की वजह से बहुत मशहूर था और कबील ए तय की सरबराही के उनवान से याद किया जाता था। हातिम के बाद उसका बेटा अदी उस कबीले का जानशीन हुआ। कबील ए तय वालों ने उसकी इताअत कुबूल की। अदी सालाना हर शख़्स की आमदनी का एक चौथाई हिस्सा बतौरे टैक्स लेता था। अदी की हुकूमत व रिसालत हज़रत रसूले खुदा सलल्ललाहो अलैहि व आलेहि वसल्लम के मबऊस होने तक और इस्लाम के फ़ैलने तक रही। कबील ए तय बुत परस्त था लेकिन अदी नसरानी मज़हब होने के बावजूद उसे उसको लागों से छिपाता था।

अरब वाले जो मुसलमान हो जाते थे वो इस्लाम की आज़ादाना वाकिफ़ियत हासिल करके सरदारों की जबरी इताअत से आज़ाद होते जा रहे थे। यही सबब था कि दूसरे अरब सरदारों की तरह अदी ने भी इस्लाम को एक बडा़ ख़तरा समझा और नतीजे में रसूले खुदा (स.) से दुश्मनी बरती। लेकिन वो रसूले खुदा (स.) और इस्लाम का कुछ नहीं कर सकता था। क्योंकि लोग जूक़ दर जूक़ आशिकाना तौर पर इस्लाम में दाख़िल होने लगे थे और इस्लाम व मुसलमानों की ताकत व अज़मत बढ़ने लगी थी। अदी अच्छी तरह समझता था कि एक दिन मेरी जुस्तुजू में भी आएंगे और मेरे तख्त व हुकूमत को उलट देंगे। इसीलिए एक ख़ास ख़िदमत गुज़ार (जो एक गुलाम था) को हुक्म दिया कि तेज़ रफ़्तार ऊँट पर हर वक्त तैयार रहना चाहिए और जिस दिन भी इत्तेला मिले इस्लामी फ़ौज नज़दीक आ गई है फौरन आगाह करे।

एक दिन गुलाम आया और कहा, जो कुछ करना हो करो, इस्लामी फ़ौज करीब आ गई। अदी के हुक्म के मुताबिक ऊँट लाए गए। उस पर घर वाले सवार हुए और जो सामान ले जाने के काबिल था सब ऊँटों पर लाद कर शाम की जानिब अपने हम ख़्याल व हम मज़हब अफ़राद से जा मिला लेकिन जल्दी में अपनी बहन सफ़ाना को भुल गया और वहीं छोड़ गया।

इस्लामी फ़ौज जिस वक्त पहुची अदी भाग चुका था। उसकी बहन सफाना को असीरों के साथ मदीना ले गए और अदी के भागने की ख़बर रसूल (स) को दी। शहरे मदीना के बाहर एक अहाता था, जिसकी चारदीवारी छोटी थी। उसी में असीरों को रखा गया था। एक दिन रसुल (स) मस्जिद जाने के लिए वहाँ से गुज़र रहे थे। सफाना जो एक समझदार और चरब ज़बान औरत थी, अपनी जगह से उठी और कहा, मेरे बाप का साया सर से उठ गया है, मेरा सरपरस्त भी मालूम नहीं कहाँ है, खुदारा मुझ पर रहम कीजिए, खुदा आप पर एहसान करेगा। हज़रत रसूले खुदा (स) ने उससे पूछा, तेरा सरपरस्त कौन है उसने जवाब दिया, अदी बिन हातिम। हज़रत रसूले खुदा (स) ने फरमाया, वही जो खुदा और उसके रसूल से भागा है। हज़रत रसूले खुदा (स.) ने फ़रमाया और रवाना हो गए। दूसरे दिन आँ हज़रत (स) फ़िर उसी तरफ से गुज़रे। सफ़ाना अपनी जगह से उठी और फ़िर वही जुमले दोहराए। रसूले खुदा (स.) ने फिर पहले दिन जैसा जवाब दिया और रवाना हो गए। सफ़ाना की उम्मीद पूरी न हुई।

तीसरे दिन पैग़म्बेर इस्लाम (स) फ़िर उसी जगह से गुज़र रहे थे लेकिन सफ़ाना को अपनी दरख़्वास्त के पूरा होने की उम्मीद नहीं थी इसीलिए उसने इरादा किया की अब वो कुछ न कहेगी। लेकिन आँ हज़रत (स.) के साथ-साथ एक जवान चल रहा था। उसने इशारे से सफ़ीना को समझाया कि आगे बढ़कर अपनी हाजत बयान करो। सफ़ाना आगे बढ़ी और पहले दिनों की तरह फ़िर कहा, मेरे बाप का साया मेरे सर से उठ गया है मेरा सरपरस्त भी मालूम नही कहाँ है, खुदारा आप मुझ पर एहसान कीजिए खुदा आप पर एहसान करेगा।

हज़रत रसूले खुदा (स.) ने फ़रमाया, बहुत अच्छा, मैं इस इन्तिज़ार मे हूं कि कोई मोतबर आदमी मिल जाए तो तुझे उसके हमराह तेरे क़बीले भेज दूंगा, अगर तुझे ही किसी मोतबर आदमी की ख़बर लगे तो मुझे मुत्तला करना। जो लोग वहाँ मौजूद थे उनसे सफ़ाना ने दरयाफ़्त किया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पीछे-पीछे, साथ-साथ कौन जवान चल रहा था जिसने मुझे अपनी हाजत बयान करने का इशारा किया। सबने कहा वो जवान अली इब्ने अबी तालिब (अ.) थे।

कुछ दिनों बाद सफ़ाने ने हज़रत रसूल खुदा (स.) को अपने क़बीले के क़ाबीले ऐतेमाद गिरोह के मदीना आने की ख़बर दी और कहा मुझे उन लोगों के साथ भेज दें। आँ हज़रत (स) ने उसे नए कपड़े सफ़र का ख़र्च और सवारी दी। सफ़ाना उस गिरोह के साथ रवाना हो गई और शाम में अपने भाई से जा मिली। जैसे ही सफ़ाना ने अपने भाई को देख़ा बुरा भला कहना शुरू कर दिया और कहा, तू अपनी बीवी बच्चों को तो ले आया और अपने बाप की निशानी यानी मुझे छोड़ आया। अदी ने सफ़ाना से माँफ़ी मांगी। चूंकि सफ़ाना एक समझदार औरत थी, इसलिए अदी ने उससे अपने कामों में मशवरा किया और पूछा:

अब जबकि तुने मुहम्मद (स.) को बहुत करीब से देख़ा है मेरे बारे में तुम्हारी क्या राय है और मेरे लिए क्या मुनासिब है? आया मैं उनके पास जाऊँ और उनसे मुलहक हो जाऊँ या इसी तरह किनारा कशी इख़्तियार करता रहूं।

सफ़ाना ने कहा, मेरे ख़्याल से बेहतर यही है कि तुम उनसे मिल जाओ अगर वो हकीकत में पैग़म्बरे खुदा हैं तो तुम्हारे लिए नेकबख़्ती और भलाई है और अगर वो पैग़म्बरे ख़ुदा नहीं हैं और हुकूमत के ख़्वाहां हैं, फिर भी यमन तुझसे ज़्यादा दूर नही है और वहाँ के लोगो के दरमियान जो इज़्ज़त व ऐहतिराम तुझे है इस लिहाज़ बे यार व मददगार नहीं रहोगे और अपने इज़्ज़त व ऐहतिराम को भी हाथ से नहीं दोगे। अदी ने इस नज़रिये को पसन्द किया और मदीना जाने का कस्द किया ताकि रसूले इस्लाम (स) के मिशन की तहकीक़ करे, और ये देखे कि क्या वो वाकई रसूल हैं ताकि एक उम्मीद की तरह उनकी पैरवी करे या अगर वो दुनिया तलब और हुकूमत के ख़्वाहां हैं तो फिर अपने फ़ायदे के लिहाज़ से उनका साथ दे। रसूले खुदा (स.) मस्जिदे मदीना में थे। उस वक्त अदी वहाँ पहुंचा और रसूल खुदा (स.) को सलाम किया रसूल खुदा ने पूछा, तू कौन है? उसने कहा, अदी बिन हातिमताई।

हज़रत रसूले खुदा (स) ने उसका एहतिराम किया और उसे अपने घर ले गए। रास्ते में जबकि रसूले खुदा (स.) और अदी जा रहे थे, उस वक़्त एक ज़ईफ़ा आँ हज़रत के सामने आई और सवाल व जवाब करने लगी और कुछ देर तक आप उसके सवालात का हौसले और मेहरबानी के साथ जवाब देते रहे।

अदी ने अपने दिल में सोंचा कि इस शख़्स का ये हुस्ने अख़लाक उसकी पैग़म्बरी की अलामत है। क्योंकि दुनिया परस्त लोगों में इस तरह के अख़लाक़ व मेहरबानी का बर्ताव नहीं पाया जाता कि वो एक ज़ईफ़ व नादार के साथ मेहरबानी और हुस्ने अख़्लाक से पेश आएं। जिस वक़्त अदी रसूले खुदा (स.) के घर में दाख़िल हुआ, रसूले खूदा (स.) की ज़िन्दगी के मामूली साज़ व सामान को देख़ा। घर में सिर्फ़ एक तोशक थी जिस पर रसूले खुदा बैठते थे। उसी को अदी के लिए बिछा दिया। अदी ने बहुत इसरार किया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) खुद उस पर बैठें लेकिन रसुले खुदा (स.) ने कुबूल नहीं किया मजबूर होकर अदी तोशक पर बैठ गया और रसूले खुदा (स.) ज़मीन पर बैठ गए। अदी ने अपने दिल में सोंचा कि ये दूसरी अलामत है जो सिर्फ़ पैग़म्बर (स.) के साथ मख़्सूस है न कि बादशाहों के लिए। पैग़म्बर (स.) ने अदी की तरफ़ रुख़ करके फ़रमाया, क्या तुम्हारा मज़हब नसरानी नहीं था? क्यों नही।

फ़िर किस लिये और किस बुनियाद पर लोगों की आमदनी का एक चौथाई हिस्सा लेता था? तुम्हारे मज़हब में तो ये काम जाइज़ नहीं है।

अदी ने अपने मज़हब को, सबसे यहाँ तक कि करीब से करीब तर अपने लोगों से भी पोशीदा रख़ा था, लेकिन रसूले इस्लाम (स) के कलाम से हैरत ज़दा हो गया और ये सोचा कि ये तीसरी अलामत है कि ये शख़्स पैग़म्बर है। उसके बाद रसूले इस्लाम ने अदी से फ़रमाया, तुम आज मुसलमानों के फक्र व फाक़े और बदहाली को देख रहे हो और तमाम लोगों में मुसलमानों को फ़कीर ख़्याल कर रहे हो। दूसरे ये कि आज दुश्मनों ने मुसलमानों का घिराव कर रख़ा है यहाँ तक कि उनकी जान व माल भी महफूज़ नहीं है, और ये भी देख़ रहे हो कि हुकूमतो इक़्तिदार दूसरों के हाथों में है। खुदा की कसम जल्द ही मुसलमानों को माल व ज़र इस कद्र मिलेगा कि कोई फ़कीर न रहेगा और खुदा की क़सम दुश्मन इतना मग़लूब हो जाएगा और ऐसा अम्न व अमान कायम होगा कि एक ख़ातून तन्हा ईराक से हिजाज़ तक बैख़ौफ़ व हिरास सफ़र कर सकेगी, कोई उससे छेड़ छाड़ न कर सकेगा।

खुदा की कसम जल्द ही बाबुल के सफ़ेद महल मुसलमानों के कब्ज़े में हो जाएंगे। अदी इंन्तेहाई खुलूस व कामिल अकीदे के साथ इस्लाम लाया और आख़िरी उम्र तक इस्लाम का वफ़ादार रहा। रसूले खुदा (स.) के बाद वो काफ़ी अर्से तक ज़िन्दा रहा और रसूले ख़ुदा की वो बातें जो पहली मुलाकात में और वो पेशिनगोइयाँ जो मुसलमानों के बारे में फ़रमाई थीं उनको हमेशा याद रख़ा और कभी न भुलाया। वो कहता था कि मैने अपनी ज़िन्दगी में देख़ लिया कि सरज़मीन बाबुल मुसलमानों के कब्ज़े में आ गई है और अम्न व अमान ऐसा था कि एक औरत ईराक से हिजाज़ तक तन्हा सफ़र कर सकती थी और कोई ख़तरा नहीं था। खुदा की कसम मुझे यकीन है कि अनकरीब ऐसा ज़माना आएगा कि कोई फ़कीर मुसलमानों में दिख़ाई न देगा।।

ग़ल्ले की मंहगाई


शहरे मदीना में रोज़ बरोज़ ग़ेहूं और रोटी की कीमत में इज़ाफ़ा होता जा रहा था। हर शख़्स पर वहशत और परेशानी के आसार ग़ालिब थे जिनके पास साल भर का ग़ल्ला मौजूद न था वो हासिल करने की फ़िक्र में लगा था और जिसके पास मौजूद था वो हिफ़ाज़त की कोशिश कर रहा था। उन्हीं में ऐसे अफ़राद भी थे जो मुफ़लिसी के सबब रोज़ाना का ग़ल्ला बाज़ार से ख़रीदते थे।

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम ने मोतब से जो आपके घर की ज़रूरीयात के ज़िम्मेदार थे, पूछा: क्या इस साल मेरे घर में गेहूं है?

मोतब ने कहा, जी हाँ, ऐ फ़रज़न्दे रसूल, इतनी मिक़दार में है कि चन्द महीनों के लिए काफ़ी होगा.. इमाम ने फ़रमाया, सारा गेंहू बाज़ार में ले जाकर लोगों में फ़रोख़्त कर दो।

ऐ फ़रज़न्दे रसूल मदीने में गेंहू नायाब है, अगर उनको फ़रोख़्त कर देंगे तो दोबारा गेहूं ख़रीदना

हमारे लिए नामुम्किन होगा।

इमाम (अ) ने फ़रमाया, जो मैने कहा है उस पर अमल करो। सब ले जाकर फ़रोख़्त कर दो।

मोतब इमाम का हुकम बजा लाया और तमाम गेंहू बेचकर इमाम को मुत्तला कर दिया। इमाम ने उसे हुकम दिया आज से हमारे घर की रोटी बाज़ार से लाना। मेरे घर की रोटी और लोगों के इस्तेमाल की रोटी में कोई फ़र्क नही होना चाहिए। आज से हमारे घर की रोटी आधे गेंहू और आधे जौ की होनी चाहिए। ख़ुदा का शुक्र है मैं साल भर तक गेंहू की रोटी इस्तेमाल करने की सलाहियत रख़ता हूँ लेकिन ऐसा काम नहीं करूंगा ताकि अल्लाह की बारगाह में जवाब न देना पड़े, कि मैंने लोगो की इजतेमाई ज़िन्दगी की ज़रूरियात का लिहाज़ नहीं रख़ा ।