सोमवार, 4 जनवरी 2010

surae hujrat ki mukhtasar tafsir

surae hujrat ki mukhtasar tafsir

लेखक- उस्ताद मोहसिन क़राती
अनुवादक- सैय्यद क़मर ग़ाज़ी
सूरए हुजरात मदीनें में नाज़िल हुआ और इसकी अठ्ठारह आयतें हैं। यह सूरए आदाब व अखलाक़ के नाम से भी मशहूर है। हुजरात हुजरे (कमरे) का बहुवचन है। इस सूरह मे रसूले अकरम (स.) के हुजरों (कमरों) का वर्णन हुआ है। इसी वजह से इस सूरह को सूरए हुजरात कहा जाता है। (यह हुजरे मिट्टी लकड़ी व खजूर के पेड़ की टहनियोँ से बिल्कुल सादे तरीक़े से बनाये गये थे।)
इस सूरह मे या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ इमान लाने वालो) की बार बार पुनरावृत्ति हुई है। जिस के द्वारा एक वास्तविक इस्लामी समाज का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत किया गया है। इस सूरेह मे कुछ ऐसी बातों की तरफ़ भी इशारा किया गया है जो दूसरे सूरोह में ब्यान नही की गयी हैं। जैसे---
1- रसूले अकरम (स.) से आगे चलने को मना करते हुए उनसे बात करने के तरीक़े को बताया गया है। और बे अदब लोगों को डाँटा डपटा गया है।
2- किसी का मज़ाक़ उड़ाने, ताना देने, बदगुमानी करने, एक दूसरे पर ऐब लगाने और चुग़ली करने जैसी बुराईयोँ को इस्लामी समाज के लिए हराम किया गया है।
3- आपसी भाई चारे, एकता, न्याय, शांति, मशकूक लोगों की लाई हुई खबरों की तहक़ीक़ और श्रेष्ठता को परखने के लिए सही कसौटी की पहचान (जो कि एक ईमानदार समाज के लिए ज़रूरी है) का हुक्म दिया गया है।
4- इस सूरह मे इस्लाम और ईमान में फ़र्क़, परहेज़गार लोगों के दर्जों की बलन्दी, तक़व-ए-इलाही की पसंदीदगी, कुफ़्र और फ़िस्क़ से नफ़रत आदि को ब्यान करते हुए न्याय को इस्लामी समाज का केन्द्र बिन्दु बताया गया है।
5- इस सूरह में इस्लामी समाज को अल्लाह का एक एहसान बताया गया है। इस इस्लामी समाज की विशेषता यह है कि यह रसूले अकरम (स.) से मुहब्बत करता है क्योँकि उन्हीं के द्वारा इस समाज की हिदायत हुई है। इस्लामी समाज मे यह विचार नही पाया जाता कि हमने ईमान लाकर अल्लाह और रसूल (स.) पर एहसान किया है।
6- इस सूरह मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि इस्लामी समाज में सब लोगों के लिए ज़रूरी है कि वह रसूले अकरम (स.) का अनुसरण करें। लेकिन वह इस बात की उम्मीद न रखें कि रसूल (स.) भी उनका अनुसरण करेंगे।
“ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह और उसके रसूल के सामने किसी बात में भी आगे न बढ़ा करो, और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह बहुत सुन ने वाला और जान ने वाला है।”
इस आयत की बारीकियाँ
यह आयत इंसान को बहुत सी ग़लतियों की तरफ तवज्जुह दिलाती है। क्योंकि इंसान कभी कभी अक्सरीयत (बहुमत) की चाहत के अनुसार, भौतिकता से प्रभावित हो कर आधुनिक विचारधारा, विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता, और फ़ैसलों में जल्दी करने आदि बातों का सहारा ले कर ऐसे काम करता है कि वह इस से भी अचेत रहता कि वह अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं का उलंघन कर चुका है। जैसे कि कुछ लोग इबादत, यक़ीन, ज़ोह्द तक़वे और सादा ज़िन्दगी के ख्याल से अल्लाह और रसूल की निश्चित की हुई सीमाओं से आगे बढ़ने की कोशिश करने लगे हैं।
· यह आयत इंसानों को फ़रिश्तों जैसा बनाना चाहती है।
इस लिए कि क़ुरआन फ़रिश्तों के बारे मे कहता है कि “वह बोलने में अल्लाह पर सबक़त( पहल) नही करते और केवल उसके आदेशानुसार ही कार्य करते हैं।”
क़ुरआन ने पहल करने और आगे बढ़ने के अवसरों को निश्चित नही किया और ऐसा इस लिए किया गया कि ताकि आस्था सम्बँधी, शैक्षिक , राजनीतिक, आर्थिक हर प्रकार की सबक़त (पहल) से रोका जा सके।
कुछ असहाब ने रसूले अकरम (स.) से यह इच्छा प्रकट की कि हम नपुंसक होना चाहते हैं। ऐसा करने से हमको स्त्री की आवश्यकता नही रहेगी और हम हर समय इस्लाम की सेवा करने के लिए तैय्यार रहेंगे। रसूले अकरम( स.) ने उनको इस बुरे काम से रोक दिया। अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने की कोशिश करने वाला व्यक्ति इस्लामी और समाजी व्यवस्था को खराब करने का दोषी बन सकता है। और इसका अर्थ यह है कि वह अल्लाह द्वारा बनाये गये क़ानून व व्यवस्था को खेल तमाशा समझ कर उसमे अपनी मर्ज़ी चलाना चाहता है।
पैग़ामात (संदेश)
1- इलाही अहकाम (आदेशों) को समाज में क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक है कि पहले मुखातब (जिससे संबोधन किया जाये) को आत्मीय रूप से तैय्यार किया जाये।
“या अय्युहल लज़ीना आमःनू (ऐ ईमान लाने वालो) यह जुम्ला मुखातब के व्यक्तित्व की उच्चता को दर्शाते हुए उसके अल्लाह के साथ सम्बंध को ब्यान करता है। और वास्तविकता यह है कि इस प्रकार उसको अमल के लिए प्रेरित करना है।
2- जिस तरह अल्लाह और रसूल से आगे बढ़ने को मना करना एक अदबी आदेश है इसी तरह यह आयत भी अपने संबोधित को एक खास अदब के साथ संबोध कर रही है। या अय्युहल लज़ीनः आमःनू (ऐ ईमान लाने वालो)
3- कुछ लोगों की अभिरूची, आदात, या समाजी रस्मों रिवाज और बहुत से क़ानून जो क़ुरआन और हदीस पर आधारित नही हैं। और न ही इंसान की अक़्ल और फ़ितरत (प्रकृति) से उनका कोई संबन्ध है उनका क्रियानवयन एक प्रकार से अल्लाह और रसूल पर सबक़त के समान है।
4- अल्लाह द्वारा हराम की गयी चीज़ों को हलाल करना और उसके द्वारा हलाल की गयी चीज़ों को हराम करना भी अल्लाह और रसूल पर सबक़त है।
5- हर तरह की बिदअत, अतिशयोक्ति, बेजा तारीफ़ या बुराई भी सबक़त के समान है।
6- हमारी फ़िक़्ह और किरदार का आधार क़ुरआन और सुन्नत को होना चाहिए।
7- अल्लाह और रसूल पर सबक़त करना तक़वे से दूरी है। जैसा कि इस आयत में फ़रमाया भी है कि सबक़त न करो और तक़वे को अपनाओ।

8- हर प्रकार की आज़ादी व तरक़्क़ी प्रशंसनीय नही है.
9- ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए ईमान और तक़वे का होना ज़रूरी है।
10- जिस बात से समाज का सुधार हो वही महत्वपूर्ण है।
11- रसूल का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। इसकी बे एहतेरामी अल्लाह की बे एहतेरामी है। और दोनों से सबक़त ले जाने को मना किया गया है।
12- इंसान का व्यवहार उसके विचारों से परिचित कराता है।
13- जो लोग अपनी इच्छाओं या दूसरे कारणों से अल्लाह और रसूल पर सबक़त करते हैं उनके पास ईमान और तक़वा नही है।
14- अपनी ग़लत फ़हमी की व्याख्या नही करनी चाहिए।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की नसीहतें

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की नसीहतें

आबान बिन तग़लिब का बयान है कि मैं ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम से दरयाफ़्त किया कि कौन चीज़ इंसान में ईमान को साबित रखती है?

आप ने फ़रमाया: इंसान में ईमान को साबित रखने वाली चीज़ परहेज़गारी है और इंसान से ईमान को निकाल देने वाली चीज़ परहेज़गारी है।

इमाम अलैहिस सलाम ने हम्माद से फ़रमाया: अगर तू चाहता है कि तेरी आंख़ें रौशन हों (तूझे ख़ुशी हासिल हो) और दुनिया व आख़िरत की भलाई नसीब हो तो जो कुछ लोगों के हाथ में है उस का लालच न कर और खुद को मर्दों में शुमार कर, दिल में यह न कह कि तू लोगों में से किसी से बुलंद मर्तबा है और अपनी ज़बान की हिफ़ाज़त जिस तरह अपने माल की हिफ़ाज़त करता है।

अम्र बिन सईदे सक़फ़ी से मंकूल है कि मैं ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस सलाम से अर्ज़ किया कि मैं हमेशा आप की ज़ियारत से मुशर्रफ़ नही हो सकता लिहाज़ा आप मुझे ऐसी चीज़ तालीम फ़रमायें कि जिस पर अमल पैरा हो कर मैं कामयाबी से हम किनार हो जाऊँ।

इमाम अलैहिस सलाम ने फ़रमाया: मैं तूझे अल्लाह से डरने, परहेज़गारी इख़्तियार करने और नेकियों के अंजाम देने की वसीयत करता हूँ। तुम्हे मालूम होना चाहिये कि नेकियों के अंजाम देने का उस वक़्त तक कोई फ़ायदा नही जब तक परहेज़गारी उस के साथ न हो।

इमाम जाफ़िर सादिक़ अलैहिस सलाम ने वसीयत की ख़्वाहिश रखने वाले एक शख़्स से फ़रमाया:
सफ़रे आख़िरत के लिये ज़ादे राह इकठ्ठा करो और जाने से पहले उसे भेज ता कि तुम्हे मरते वक़्त दूसरों से इलतेमास और वसीयत न करनी पड़ी कि वह बाद में तुम्हारे लिये ज़ादे राह भेज दें।

हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म

हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म

अंबिया और आईम्मा अलैहिमुस सलाम के इल्म के बारे में लोगों के मुख़्तलिफ़ नज़रियात हैं, कुछ मोअतक़िद हैं कि उन का इल्म महदूद था और शरई मसायल के अलावा दूसरे उमूर उन के हीता ए इल्म से ख़ारिज हैं, क्यो कि इल्मे ग़ैब ख़ुदा के अलावा किसी के पास नही है। क़ुरआने करीम की कुछ आयते इस बात की ताकीद करती हैं जैसे
ग़ैब की चाभियाँ उस के पास हैं उस के अलावा कोई भी उन से मुत्तला नही है। (सूर ए अनआम आयत 59)
दूसरी आयत में इरशाद हुआ कि ख़ुदा वंद तुम्हे ग़ैब से मुत्तला नही करता। कुछ इस नज़रिये को रद्द करते हैं और मोअतक़िद हैं कि अंबिया और आईम्मा अलैहिमुस सलाम का इल्म हर चीज़ पर अहाता रखता है और कोई भी चीज़ चाहे उमूरे तकवीनिया में से हो या तशरीईया में से उन के इल्म से बाहर नही है। एक गिरोह ऐसा भी है जो इमाम की इस्मत का क़ायल नही है और अहले सुन्नत की तरह इमाम को एक आम रहबर और पेशवा की तरह मानता है। उस का कहना है कि मुम्किन है कि इमाम किसी चीज़ के बारे में मामूमीन से भी कम इल्म रखता हो और उस के इताअत गुज़ार कुछ चीज़ों में उस से आलम हों। जैसा कि मुसलमानों के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने एक औरत के इस्तिदलाल के बाद अपने अज्ज़ का इज़हार करते हुए एक तारीख़ी जुमला कहा: तुम सब उमर से ज़ियादा साहिबे इल्म हो हत्ता कि ख़ाना नशीन ख़्वातीन भी। (शबहा ए पेशावर पेज 852)
फ़लसफ़े की नज़र से हमारा मौज़ू इंसान की मारेफ़त और उस के इल्म की नौईयत से मरबूत है और यह कि इल्म किस मक़ूले के तहत आता है। मुख़्तसर यह कि इल्म वाक़ईयत के मुनकशिफ़ होने का नाम है और यह दो तरह का होता है ज़ाती और कसबी। ज़ाती इल्म ख़ुदा वंदे आलम के लिये है और नौए बशर उस की हक़ीक़त और कैफ़ियत से मुत्तला नही हो सकती लेकिन कसबी इल्म को इंसान हासिल कर सकता है। इल्म की एक तीसरी क़िस्म भी है जिसे इल्मे लदुन्नी और इलहामी कहा जाता है। यह इल्म अंबिया और औलिया के पास होता है। यह इल्म न इंसानों की तरह कसबी और तहसीली होता है और ख़ुदा की ज़ाती बल्कि अरज़ी इल्म है जो ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से उन को अता होता है। इसी इल्म के ज़रिये अंबिया और औलिया अलैहिमुस सलाम लोगों को आईन्दा और ग़ुज़रे हुए ज़माने की ख़बरें देते थे और हर सवाल का जवाब सवाल करने वालों की अक़्ल की मुनासेबत से देते थे जैसा कि क़ुरआने मजीद ने हज़रते ख़िज़्र अलैहिस सलाम के लिये फ़रमाया: हम ने उन्हे अपनी तरफ़ से इल्मे लदुन्नी व ग़ैबी अता किया। (सूर ए कहफ़ आयत 65)
क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस सलाम की ज़बानी फ़रमाया है कि मैं तुम्हे ख़बर देता हूँ जो तुम खाते हो और जो घरों में ज़खीरा करते हो। (सूर ए आले इमरान आयत 94)
मअलूम हुआ कि इस इल्मे गै़ब में जो ख़ुदा वंदे आलम अपने लिये मख़सूस करता है और उस इल्म में जो अपने नबियों और वलियों को अता करता है, फ़र्क़ है और वह फ़र्क़ वही है जो ज़ाती और अरज़ी इल्म में है जो दूसरों के लिये ना मुम्किन है वह इल्में ज़ाती है लेकिन अरज़ी इल्म ख़ुदा वंदे आलम अपने ख़ास बंदों को अता करता है जिस के ज़रिये वह ग़ैब की ख़बरें देते हैं।
ख़ुदा ग़ैब का जानने वाला है किसी पर भी ग़ैब को ज़ाहिर नही करता सिवाए इस के कि जिसे रिसालत के लिये मुन्तख़ब कर ले। गुज़श्ता आयात से यह नतीजा निकलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) जो जंजीरे आलमे इमकान की पहली कड़ी हैं और क़ाबा क़ौसेने और अदना की मंज़िल पर फ़ायज़ हैं ख़ुदा के बाद सब से ज़ियादा इल्म उन के पास है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद हुआ:
इसी लिये वह कायनात के असरार व रुमूज़ का इल्म पर मख़लूक़ से ज़्यादा रखते हैं और हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म भी उन्ही की तरह इसी उसी अजली व अबदी सर चश्मे से वाबस्ता है। इस लिये कि हज़रत अली अलैहिस सलाम बाबे मदीनतुल इल्म हैं जैसा कि आँ हज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वा आलिहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मैं शहरे इल्म हूँ और अली उस का दरवाज़ा। (मनाक़िबे इब्ने मग़ाज़ेली पेज 80)
और फ़रमाया कि मैं दारे हिकमत हूँ और अली उस का दरवाज़ा। (ज़ख़ायरुल उक़बा पेज 77)
ख़ुद हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुझे इल्म के हज़ार बाब तालीम किये। जिन में हर बाब में हज़ार हज़ार बाब थे। (ख़ेसाले सदूक़ जिल्द2 पेज 176)
शेख सुलैमान बल्ख़ी ने अपनी किताब यनाबीउल मवद्दत में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम से नक़्ल किया है कि आप ने फ़रमाया कि मुझ से असरारे ग़ैब के बारे में सवाल करो कि बेशक मैं उलूमे अंबिया का वारिस हूँ। (यनाबीउल मवद्दा बाब 14 पेज 69)
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया कि इल्म व हिकमत दस हिस्सों में तक़सीम हुई है जिस में से नौ हिस्से अली से मख़सूस हैं और एक हिस्सा दूसरे तमाम इंसानों के लिये है और उस एक हिस्से में भी अली आलमुन नास (लोगों में सबसे ज़ियादा जानने वाले हैं।)
यनाबीउल मवद्दत बाब 14 पेज 70
ख़ुद अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया कि मुझ से जो चाहो पूछ लो इस से पहले कि मैं तुम्हारे दरमियान में न रहूँ। (इरशादे शेख़ मुफ़ीद जिल्द 1 बाब 2 फ़स्ल 1 हदीस 4)
मुख़्तसर यह कि बहुत सी हदीसें अली अलैहिस सलाम के बे कराँ इल्म की तरफ़ इशारा करती हैं कि जिन से मअलूम होता है कि अली ग़ैब के जानने वाले और आलिमे इल्मे लदुन्नी थे।
इख़्तेसार के पेश नज़र इस बहस को यहीं पर ख़त्म करते हैं इस उम्मीद पर के साथ कि इंशा अल्लाह अनक़रीब ही किसी दूसरे इशाअती सिलसिले में इस मौज़ू पर सैरे हासिल बहस क़ारेईन की ख़िदमत में पेश करेगें।

हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म

हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म

अंबिया और आईम्मा अलैहिमुस सलाम के इल्म के बारे में लोगों के मुख़्तलिफ़ नज़रियात हैं, कुछ मोअतक़िद हैं कि उन का इल्म महदूद था और शरई मसायल के अलावा दूसरे उमूर उन के हीता ए इल्म से ख़ारिज हैं, क्यो कि इल्मे ग़ैब ख़ुदा के अलावा किसी के पास नही है। क़ुरआने करीम की कुछ आयते इस बात की ताकीद करती हैं जैसे
ग़ैब की चाभियाँ उस के पास हैं उस के अलावा कोई भी उन से मुत्तला नही है। (सूर ए अनआम आयत 59)
दूसरी आयत में इरशाद हुआ कि ख़ुदा वंद तुम्हे ग़ैब से मुत्तला नही करता। कुछ इस नज़रिये को रद्द करते हैं और मोअतक़िद हैं कि अंबिया और आईम्मा अलैहिमुस सलाम का इल्म हर चीज़ पर अहाता रखता है और कोई भी चीज़ चाहे उमूरे तकवीनिया में से हो या तशरीईया में से उन के इल्म से बाहर नही है। एक गिरोह ऐसा भी है जो इमाम की इस्मत का क़ायल नही है और अहले सुन्नत की तरह इमाम को एक आम रहबर और पेशवा की तरह मानता है। उस का कहना है कि मुम्किन है कि इमाम किसी चीज़ के बारे में मामूमीन से भी कम इल्म रखता हो और उस के इताअत गुज़ार कुछ चीज़ों में उस से आलम हों। जैसा कि मुसलमानों के दूसरे ख़लीफ़ा हज़रत उमर ने एक औरत के इस्तिदलाल के बाद अपने अज्ज़ का इज़हार करते हुए एक तारीख़ी जुमला कहा: तुम सब उमर से ज़ियादा साहिबे इल्म हो हत्ता कि ख़ाना नशीन ख़्वातीन भी। (शबहा ए पेशावर पेज 852)
फ़लसफ़े की नज़र से हमारा मौज़ू इंसान की मारेफ़त और उस के इल्म की नौईयत से मरबूत है और यह कि इल्म किस मक़ूले के तहत आता है। मुख़्तसर यह कि इल्म वाक़ईयत के मुनकशिफ़ होने का नाम है और यह दो तरह का होता है ज़ाती और कसबी। ज़ाती इल्म ख़ुदा वंदे आलम के लिये है और नौए बशर उस की हक़ीक़त और कैफ़ियत से मुत्तला नही हो सकती लेकिन कसबी इल्म को इंसान हासिल कर सकता है। इल्म की एक तीसरी क़िस्म भी है जिसे इल्मे लदुन्नी और इलहामी कहा जाता है। यह इल्म अंबिया और औलिया के पास होता है। यह इल्म न इंसानों की तरह कसबी और तहसीली होता है और ख़ुदा की ज़ाती बल्कि अरज़ी इल्म है जो ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से उन को अता होता है। इसी इल्म के ज़रिये अंबिया और औलिया अलैहिमुस सलाम लोगों को आईन्दा और ग़ुज़रे हुए ज़माने की ख़बरें देते थे और हर सवाल का जवाब सवाल करने वालों की अक़्ल की मुनासेबत से देते थे जैसा कि क़ुरआने मजीद ने हज़रते ख़िज़्र अलैहिस सलाम के लिये फ़रमाया: हम ने उन्हे अपनी तरफ़ से इल्मे लदुन्नी व ग़ैबी अता किया। (सूर ए कहफ़ आयत 65)
क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस सलाम की ज़बानी फ़रमाया है कि मैं तुम्हे ख़बर देता हूँ जो तुम खाते हो और जो घरों में ज़खीरा करते हो। (सूर ए आले इमरान आयत 94)
मअलूम हुआ कि इस इल्मे गै़ब में जो ख़ुदा वंदे आलम अपने लिये मख़सूस करता है और उस इल्म में जो अपने नबियों और वलियों को अता करता है, फ़र्क़ है और वह फ़र्क़ वही है जो ज़ाती और अरज़ी इल्म में है जो दूसरों के लिये ना मुम्किन है वह इल्में ज़ाती है लेकिन अरज़ी इल्म ख़ुदा वंदे आलम अपने ख़ास बंदों को अता करता है जिस के ज़रिये वह ग़ैब की ख़बरें देते हैं।
ख़ुदा ग़ैब का जानने वाला है किसी पर भी ग़ैब को ज़ाहिर नही करता सिवाए इस के कि जिसे रिसालत के लिये मुन्तख़ब कर ले। गुज़श्ता आयात से यह नतीजा निकलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) जो जंजीरे आलमे इमकान की पहली कड़ी हैं और क़ाबा क़ौसेने और अदना की मंज़िल पर फ़ायज़ हैं ख़ुदा के बाद सब से ज़ियादा इल्म उन के पास है जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद हुआ:
इसी लिये वह कायनात के असरार व रुमूज़ का इल्म पर मख़लूक़ से ज़्यादा रखते हैं और हज़रत अली अलैहिस सलाम का इल्म भी उन्ही की तरह इसी उसी अजली व अबदी सर चश्मे से वाबस्ता है। इस लिये कि हज़रत अली अलैहिस सलाम बाबे मदीनतुल इल्म हैं जैसा कि आँ हज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वा आलिहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मैं शहरे इल्म हूँ और अली उस का दरवाज़ा। (मनाक़िबे इब्ने मग़ाज़ेली पेज 80)
और फ़रमाया कि मैं दारे हिकमत हूँ और अली उस का दरवाज़ा। (ज़ख़ायरुल उक़बा पेज 77)
ख़ुद हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुझे इल्म के हज़ार बाब तालीम किये। जिन में हर बाब में हज़ार हज़ार बाब थे। (ख़ेसाले सदूक़ जिल्द2 पेज 176)
शेख सुलैमान बल्ख़ी ने अपनी किताब यनाबीउल मवद्दत में अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम से नक़्ल किया है कि आप ने फ़रमाया कि मुझ से असरारे ग़ैब के बारे में सवाल करो कि बेशक मैं उलूमे अंबिया का वारिस हूँ। (यनाबीउल मवद्दा बाब 14 पेज 69)
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया कि इल्म व हिकमत दस हिस्सों में तक़सीम हुई है जिस में से नौ हिस्से अली से मख़सूस हैं और एक हिस्सा दूसरे तमाम इंसानों के लिये है और उस एक हिस्से में भी अली आलमुन नास (लोगों में सबसे ज़ियादा जानने वाले हैं।)
यनाबीउल मवद्दत बाब 14 पेज 70
ख़ुद अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया कि मुझ से जो चाहो पूछ लो इस से पहले कि मैं तुम्हारे दरमियान में न रहूँ। (इरशादे शेख़ मुफ़ीद जिल्द 1 बाब 2 फ़स्ल 1 हदीस 4)
मुख़्तसर यह कि बहुत सी हदीसें अली अलैहिस सलाम के बे कराँ इल्म की तरफ़ इशारा करती हैं कि जिन से मअलूम होता है कि अली ग़ैब के जानने वाले और आलिमे इल्मे लदुन्नी थे।
इख़्तेसार के पेश नज़र इस बहस को यहीं पर ख़त्म करते हैं इस उम्मीद पर के साथ कि इंशा अल्लाह अनक़रीब ही किसी दूसरे इशाअती सिलसिले में इस मौज़ू पर सैरे हासिल बहस क़ारेईन की ख़िदमत में पेश करेगें।